________________ 470 जीतकल्प सभाष्य 2005. जब तक ईश्वर आदि निर्गमन या प्रवेश करते हैं, तब तक भिक्षार्थ गया हुआ मुनि प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। इससे सूत्रार्थ एवं भिक्षा की हानि होती है। अश्व आदि के संघट्टन-भय से ईर्या का शोधन नहीं होता। प्रवेश या निर्गम के समय साधु को अमंगल मानकर कोई हाथी, घोड़े आदि का हनन कर सकता है अन्यथा लोगों की भीड़ से साधु के संघट्टन हो सकता है। 2006. राजकुल में प्रविष्ट होकर मुनि लोभवश एषणा का घात कर सकता है। राजपुरुषों को यह आशंका हो सकती है कि यह कोई स्तेन है। नपुंसक अथवा स्त्रियां साधु को उपसर्ग दे सकती हैं। चाहते हुए या न चाहते हुए भी संयमविराधना आदि दोष हो सकते हैं। वहां जाने पर साधु को चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2007. ऐसा उत्कृष्ट द्रव्य अन्यत्र मिलना दुर्लभ है, यह सोचकर राजभवन में गया हुआ मुनि अनेषणीय भी ग्रहण कर लेता है। राजभवन में अन्य के चोरी करने पर भी यह साधु चोर है' ऐसी आशंका हो सकती है। 2008. यह मुनि गुप्तचर अथवा चोर है, ऐसी शंका होने पर मूल, निःशंकित अवस्था में अनवस्थाप्य, पारदारिक अथवा अभिमर' आदि की शंका होने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तथा निःशंकित होने पर दसवां पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2009. राजभवन से बाहर विचरण नहीं होता इसलिए स्त्री और नपुंसक साधु को बलपूर्वक भी पकड़ सकते हैं। इससे राजा रुष्ट होकर आचार्य, कुल, गण और संघ का विनाश भी कर सकता है। 2010. राजभवन में जाने पर अन्य दोष भी होते हैं। वहां रत्न आदि बिखरे रहते हैं अत: गौल्मिकस्थानपाल आदि पकड़कर परितापना दे सकते हैं। साधु की निश्रा में चोर भी प्रवेश कर सकते हैं। राजभवन में दुष्ट तिर्यञ्च अथवा मनुष्य साधु को कष्ट दे सकते हैं। 2011. राजभवन में आकीर्ण रत्न आदि को स्वयं साधु तथा उसकी निश्रा में आने वाला व्यक्ति भी ग्रहण कर सकता है। गौल्मिक उसे पकड़कर आहनन कर सकता है। राजा को निवेदन करने पर प्रायश्चित्त की प्राप्ति हो सकती है। 2012. साधु की निश्रा में गुप्तचर, चोर, अभिमर और कामी आदि राजभवन में प्रवेश कर सकते हैं। हाथी, तरक्ष, बाघ, म्लेच्छ आदि साधु का घात कर सकते हैं। १.धनादि के लोभ में दूसरों का घात करने वाला। 2. यह गाथा बृभा (6392) में भी प्राप्त है। वहां गाथा के पूर्वार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि स्त्री या नपुंसक भोगासक्ति से साधु को पकड़ ले, उस समय यदि साधु प्रतिसेवना करता है तो चारित्र की विराधना होती है, यदि प्रतिसेवना नहीं करता तो लोकापवाद होता है। 1. बृभाटी पृ. 1686 /