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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 159 * दूसरे भिक्षु ने मंद अध्यवसाय से दो मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के पन्द्रह दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। * तीसरे भिक्षु ने मंदतम अध्यवसाय से तीन प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको मास के दस-दस दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। * किसी चौथे भिक्षु ने अति मंदतम अध्यवसाय से चार मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के साढ़े सात दिन के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। इस चतुर्भगी को समझने के लिए भाष्यकार ने पांच वणिक् और पन्द्रह गर्दभ की मार्मिक कथा का संकेत किया है। पांच वणिकों के पास विषम मूल्य वाले पन्द्रह गधे थे। समान वितरण के समय पांचों में कलह होने लगा। यदि सबको समान वितरण किया जाता तो सबको तीन-तीन गधे मिलते चूंकि उनका मूल्य समान नहीं था अतः यह वितरण किसी को मान्य नहीं हुआ। एक मध्यस्थ व्यक्ति ने उनका वितरण किया। उसने साठ रुपए मूल्य वाला एक गधा एक व्यापारी को दिया। दूसरे को तीस-तीस रुपए मूल्य वाले दो गधे, तीसरे को बीस-बीस रुपए मूल्य वाले तीन गधे, चौथे को पन्द्रह-पन्द्रह रुपए मूल्य वाले चार गधे तथा पांचवें को बारह-बारह मूल्य वाले पांच गधे दिए। इसी प्रकार प्रायश्चित्त दाता रागद्वेष से मुक्त होकर अनेक परिस्थितियों के आधार पर प्रायश्चित्त देता है। .... पुरुष के आधार पर भी प्रायश्चित्त का निर्धारण होता है। जीतकल्पभाष्य के अनुसार पुरुषों के अनेक प्रकार हो सकते हैं-गीतार्थ-अगीतार्थ, समर्थ-असमर्थ, सहिष्णु-असहिष्णु, मायावी-ऋजु, परिणामक, अपरिणामक, अतिपरिणामक, ऋद्धिमान प्रव्रजित ऋद्धिहीन प्रव्रजित-इन सब पुरुषों में तुल्य अपराध होने पर भी प्रायश्चित्त-दान में भिन्नता रहती है। स्वभाव के आधार पर दारुण और भद्र पुरुष में भी समान अपराध में प्रायश्चित्त भेद होता है। . उदाहरणार्थ जो स्थिर गीतार्थ होते हैं, उन्हें अपराध के अनुसार पूर्ण प्रायश्चित्त दिया जाता है लेकिन अस्थिर अगीतार्थ को गुरु उसके सामर्थ्य के आधार पर कम या पूर्ण प्रायश्चित्त देते हैं। * अन्य विकल्प के अनुसार पुरुष चार प्रकार के होते हैं। उनमें भी प्रायश्चित्त-दान में तरतमता होती है। 1. उभयतरक-उत्कृष्ट छह मासिक तप करने पर भी आचार्य की अग्लान भाव से सेवा करने वाला उभयतरक कहलाता है। वह अपना और आचार्य-दोनों का उपग्रह करता है। १.व्यभा 329-31 / २.व्यभा 4025,4026 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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