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________________ 158 जीतकल्प सभाष्य द्रव्य की दृष्टि से जहां शालि आदि उत्कृष्ट धान्य नित्य सुलभ होते हैं, वहां अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है तथा जहां काजिक आदि रूक्ष आहार कम या दुर्लभ हों, वहां कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। रूक्ष क्षेत्र वात और पित्त को उत्पन्न करता है। शीत क्षेत्र बलप्रद होता है। शीत क्षेत्र में अधिक प्रायश्चित्त, रूक्ष क्षेत्र में हीनतर तथा साधारण क्षेत्र में मध्यम प्रायश्चित्त दिया जाता है। गर्मी में तपस्या करना कठिन होता है अतः काल की दृष्टि से भी भाष्यकार ने विस्तार से चर्चा की है। ग्रीष्म ऋतु में उत्कृष्ट तेला, शिशिर में चोला तथा वर्षाकाल में पंचोला तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए, यह उत्कृष्ट तप की अपेक्षा है। जघन्य दृष्टि से ग्रीष्म में उपवास, शीतकाल में बेला तथा वर्षाकाल में तेले का प्रायश्चित्त दिया जाता है। मध्यम तप की दृष्टि से ग्रीष्म में बेला, शीत में तेला तथा वर्षा में चोले का. प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसका भाष्यकार ने 1093 गाथाओं में विस्तार से वर्णन किया है। भाव के आधार पर स्वस्थ प्रतिसेवक को अधिक तप दिया जाता है। ग्लान को नहीं दिया जाता अथवा उतना ही दिया जाता है, जितना वह शरीर के आधार पर सहन कर सके। भाव में मंद और तीव्र अनुभाव भी प्रायश्चित्त की तरतमता में निमित्त बनते हैं। मंद अनुभाव से चरम प्रायश्चित्त जितना अतिचार सेवन करके भी पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त दिया जा सकता है तथा तीव्र अनुभाव से पणग प्रायश्चित्त जितना अतिचार सेवन करने पर चरम-पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त हो सकता है। यदि साधु मायावी नहीं है लेकिन कर्मोदय से सावधानी में कमी है तो अनेक बार गलती होने पर भी उसे कड़ा प्रायश्चित्त नहीं मिलता। यदि गलती करके दर्प प्रतिसेवना से वह गलती को स्वीकार नहीं करता अपितु दोषों की स्थापना करता है तो बोलने मात्र से उसका प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है। भाष्यकार ने इन सबको अनेक दृष्टान्तों से विस्तार से समझाया है। __प्रतिसेवक के अध्यवसाय-भेद से प्रतिसेवना की भिन्नता होने पर भी समान प्रायश्चित्त से विशोधि हो जाती है। इस भेद के पीछे प्रायश्चित्तदाता का राग द्वेष नहीं, अपितु यथार्थ दृष्टिकोण और विवेक होता है। व्यवहारभाष्य में इस संदर्भ में चतुर्भंगी प्रस्तुत की गई है• एक भिक्षु ने तीव्र अध्यवसाय से निष्कारण मासिक प्रतिसेवना प्रायश्चित्त जितना अपराध किया, उसको एक मास का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 1. जीसू 65 / 2. जीसू 66 / 3. जीभा 1826-1935 / 4. जीसू 68 / 5. जीभा 1938 / 6. देखें बृभा 6130-62 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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