________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 157 * स्वस्थ होने पर भी म्रक्षण आदि क्रियाएं उसी रूप में करने पर। * स्थविर की अनुज्ञा के बिना अभिशय्या और नैषेधिकी में जाने पर। तप प्रायश्चित्त तथा अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप में अन्तर यद्यपि व्याख्याकारों ने कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि तप प्रायश्चित्त में प्राप्त परिहार तप और अंतिम दो प्रायश्चित्तों में मिलने वाले परिहार तप में क्या अंतर है? ऐसा प्रतीत होता है कि परिहार तप कर्ता की योग्यता, आलाप आदि दश पदों का परिहार तथा पर्याय आदि की दृष्टि से दोनों में समानता है लेकिन तप की काल-मर्यादा की दृष्टि से तप प्रायश्चित्त वाले परिहार तप का जघन्य समय एक मास तथा उत्कृष्ट छह मास है। अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप में जघन्य छह मास तथा उत्कृष्ट बारह वर्ष है। . तप प्रायश्चित्त में पारिहारिक संघ में रहते हुए प्रायश्चित्त वहन करता है लेकिन पाराञ्चित में क्षेत्र के बाहर प्रायश्चित्त वहन किया जाता है। तप प्रायश्चित्त साधु को भी प्राप्त हो सकता है लेकिन अनवस्थाप्य उपाध्याय को तथा पाराञ्चित प्रायश्चित्त आचार्य को प्राप्त होता है। परिहार तप प्राप्ति के कारण तथा अनवस्थाप्य और पाराञ्चित प्रायश्चित्त में प्राप्त परिहार तप के कारणों में भी अन्तर है। तप प्रायश्चित्त-दान में तरतमता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अन्य प्रायश्चित्तों की अपेक्षा तप प्रायश्चित्त का विस्तार से वर्णन किया है। इस पूरे प्रसंग को पढ़कर कहा जा सकता है कि तप प्रायश्चित्त को उन्होंने अनेकान्त के प्रायोगिक रूप में प्रस्तुत किया है। भाष्यकार के अनुसार तप प्रायश्चित्त के निर्धारण में आचार्य निम्न बातों का ध्यान रखते ... 1. आहार आदि द्रव्य की सुलभता-दुर्लभता। 2. क्षेत्र की रूक्षता और स्निग्धता? . 3. काल की दृष्टि से कौन सी ऋतु है? 4. भाव की दृष्टि से ग्लान या स्वस्थ? अथवा मंद या तीव्र अनभाव? 5. प्रतिसेवक पुरुष गीतार्थ है या अगीतार्थ? 6. प्रतिसेवना कैसी है दर्प या कल्प? भगवती आराधना के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करण, परिणाम, उत्साह, शरीरबल, प्रव्रज्याकाल, आगम और पुरुष–इन दस बातों को जानकर फिर प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1. बृभा 6033 / .२.व्यभा 690 / 3. भआ 452; दव्वं खेत्तं कालं, भावं करणपरिणाममुच्छाह। संघदणं परियायं, आगमपुरिसं च विण्णाय।।