________________ 160 जीतकल्प संभाष्य 2. आत्मतरक-तप में बलिष्ठ किन्तु वैयावृत्त्य लब्धि से हीन आत्मतरक कहलाता है। वह तप द्वारा केवल स्वयं पर अनुग्रह करता है। 3. परतरक-तपोबल से हीन केवल वैयावृत्त्य करने वाला। 4. अन्यतरक-तप और वैयावृत्त्य दोनों में समर्थ लेकिन एक समय में एक ही कार्य करने वाला। जीतकल्पभाष्य में नोभयतरक को चौथा भेद मानकर अन्यतरक को पांचवां भेद माना है। उभयतरक और आत्मतरक-ये दोनों प्रायश्चित्त के अभिमुख होते हैं। परतरक और अन्यतरक जब तक वैयावृत्त्य करते हैं, तब तक उनका प्रायश्चित्त निक्षिप्त रहता है। उभयतरक को यदि इंद्रियों के अतिक्रमण आदि से पुनः तप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पंच मास पर्यन्त प्रायश्चित्त भी भिन्नमास में समाविष्ट हो जाता है। परतरक पुरुष को बहुक प्रायश्चित्त स्थान में भी अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है क्योंकि वैयावृत्त्य आदि में संलग्न रहने के कारण वह तपोयोग का वहन नहीं कर सकता। प्रतिसेवक पुरुष के धृतिबल और संहनन को देखकर भी आचार्य तप प्रायश्चित्त में तरतमता करते हैं। धृति और संहनन के आधार पर दिए जाने वाले प्रायश्चित्त को भाष्यकार ने बैल और शकट की उपमा से उपमित किया है * भंडी दुर्बल, बैल बलिष्ठ। * भंडी सक्षम, बैल दुर्बल। * भंडी सक्षम, बैल बलिष्ठ। * भंडी दुर्बल, बैल भी दुर्बल। पुरुष के आधार पर इसकी चतुर्भगी इस प्रकार होती है• धृति से दुर्बल, देह से बलिष्ठ। * धृति से बली, देह से दुर्बल। * धृति और देह -दोनों से बली। * धृति और देह-दोनों से दुर्बल। धृति और देह से बलिष्ठ को पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता है। धृति से हीन और शरीर से बलिष्ठ, धृति से बली और शरीर से दुर्बल को लघुक तथा उभय से हीन को कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। क्षमता से अधिक प्रायश्चित्त देने से आचार्य को मृषा दोष तथा आशातना दोष लगता है तथा शिष्य के मन में भी आचार्य के प्रति अप्रीति हो जाती है। प्रायश्चित्त की तरतमता के पीछे आचार्य का दृष्टिकोण राग-द्वेष युक्त नहीं अपितु प्रतिसेवक को अच्छी तरह प्रायश्चित्त वहन करवाना होता है। जैसे एक माह के शिशु को चार माह के शिशु जितना आहार देने से वह अजीर्ण रोग से ग्रस्त हो जाता है तथा चार माह के शिशु को एक माह के शिशु जितना आहार देने 1. जीभा 1962-66 / ४.व्यभा 501 / २.व्यभा 479,480 / 5. व्यभा 660,661 / 3. व्यभा 483 /