________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 161 पर वह दुर्बल हो जाता है, वैसे ही दुर्बल को कम और सबल को अधिक प्रायश्चित्त देने से आचार्य पक्षपात के दोष से दूषित नहीं होते। तप प्रायश्चित्त में जीतव्यवहार के आधार पर एक ही अपराध में भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त की प्राप्ति का विधान भी मिलता है। उदाहरणार्थ एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों का व्यापादन होने पर प्राप्त प्रायश्चित्त में तीन आदेश-पम्पराएं मिलती हैं१. एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों का व्यापादन होने पर क्रमशः उपवास से लेकर द्वादशभक्तपंचोला तक का प्रायश्चित्त मिलता है, यह एक आदेश है। अर्थात् एकेन्द्रिय के व्यापादन में उपवास, द्वीन्द्रिय में बेला, त्रीन्द्रिय में तेला, चतुरिन्द्रिय में चोला तथा पंचेन्द्रिय के व्यापादान में पंचोले तप का प्रायश्चित्त मिलता है। 2. क्रमशः एक कल्याणक से पांच कल्याणक तक की प्राप्ति होती है, यह दूसरा आदेश है। 3. तीसरे आदेश के अनुसार पृथ्वी, अप्, तैजस्, वायु और परित्त वनस्पति–इनका संघट्टन होने पर लघुमास, परितापन में गुरुमास तथा अपद्रावण में चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। साधारण वनस्पति काय के संघट्टन में गुरुमास, परितापन में चतुर्लघु तथा अपद्रावण में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। / याज्ञवल्क्य स्मृति में भी उल्लेख मिलता है कि प्रायश्चित्त देते समय देश, काल, बल, आयु, योग्यता, विद्या आदि की स्थिति जानकर फिर प्रायश्चित्त देना चाहिए। प्रायश्चित्त में सापेक्षता अनेकान्त का प्रायोगिक रूप है। इसके द्वारा संघ की अव्यवच्छित्ति और प्रतिसेवक की शोधि-दोनों कार्य सुगमता से सम्पन्न हो जाते हैं। 7. छेद प्रायश्चित्त छेद का अर्थ है-काटना। दिवस, पक्ष, मास आदि पर्यन्त दीक्षा-पर्याय को कम करना छेद प्रायश्चित्त है। जैसे शरीर में विषैले फोड़े या व्याधिग्रस्त अंग को अन्य अंगों की रक्षा के लिए काट दिया जाता है, वैसे ही जिस अपराध के सेवन करने पर पूर्व पर्याय दूषित हो जाने से शेष पर्याय की रक्षा के लिए उतने पर्याय का छेद कर दिया जाता है, वह छेद प्रायश्चित्त है। चूर्णिकार के अनुसार अपराधों का उपचय, शासनविरुद्ध समाचरण तथा तप के योग्य प्रायश्चित्त का अतिक्रमण होने पर प्रव्रज्या के पांच दिन आदि का 1. व्यभा ४९४-टी प.८। २.निभा 116, 117 चू पृ. 49 / / 3. याज्ञ 1/368; .." ज्ञात्वापराधं देशं च, कालं बलमथापि वा। वयः कर्म च वित्तं च, दण्डं दण्ड्ये षु पातयेत्।। 4. तवा 9/22 पृ. 621; दिवस-पक्ष-मासादिना प्रव्रज्याहायनं छेदः। ५.जीभा 725 /