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________________ 162 जीतकल्प सभाष्य छेद करना अर्थात् संयम-पर्याय को कम करना छेद प्रायश्चित्त है। आचार्य उमास्वाति ने छेद, अपवर्तन. और अपहार को एकार्थक माना है। परिहार तप से छेद प्रायश्चित्त बड़ा होता है। . जो तप-गर्वित, तप करने में असमर्थ, तप में श्रद्धा नहीं करने वाला, तप करने पर भी अदम्य स्वभाव वाला, अतिपरिणामक और अतिप्रसंगी होता है, उसको तप प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसके अतिरिक्त पिण्डविशोधि आदि उत्तर गुणों को अधिक भ्रष्ट करने वाला, बार-बार छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करने वाला, पार्श्वस्थ, कुशील आदि अथवा वैयावृत्त्य करने वाले साधुओं को तप्त करने वाले साधु को छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सब प्रकार से बलवान्, शूरवीर और अभिमानी है, उसके द्वारा अपराध करने पर उसको छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। निशीथभाष्य में शिष्य प्रश्न पूछता है कि किसी साधु ने छह मास तप से अधिक प्रतिसेवना की तो भी उसे छेद प्रायश्चित्त क्यों नहीं दिया जाता? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि जो अगीतार्थ, अपरिणामक या अतिपरिणामक है, छेद को सहन करने में समर्थ नहीं है, उसके द्वारा अनेक वर्षों जितनी प्रतिसेवना करने पर भी स्थापनारोपणा के द्वारा छह मास तक का तप प्रायश्चित्त दिया जाता है। छेद और मूल प्रायश्चित्त जितना अपराध होने पर भी उसे तप ही दिया जाता है। यदि अविकोविद भी जान-बूझकर पञ्चेन्द्रिय का घात करता है, दर्प से मैथुन सेवन करता है तो उसे छेद या मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। एकेन्द्रिय की अयतना से विराधना या निष्कारण प्रतिसेवना करने अथवा बार-बार प्रतिसेवना करने पर छेद और मूल को प्राप्त अविकोविद को छह मास का तप प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। जो विकोविद होता है, उसके द्वारा अनेक मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर उद्घात प्रायश्चित्त, दूसरी बार प्रतिसेवना करने पर अनुद्घातिक प्रायश्चित्त दिया जाता है, छेद नहीं दिया जाता। तीसरी बार प्रतिसेवना करने पर छेद दिया जाता है, मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता।। ___ तप और छेद–इन दोनों का स्वस्थान में प्रायश्चित्त-दान तुल्य होता है अर्थात् दोनों का आदि स्थान पांच अहोरात्र है फिर पांच-पांच दिन की वृद्धि होने से अंतिम स्थान छह मास है। कहने का तात्पर्य यह है कि तप प्रायश्चित्त में पांच अहोरात्र से कम और छह मास से अधिक प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। 1. आवचू 2 पृ. 246, 247 / 2. तस्वोभा 9/22 ; छेदोऽपवर्तनमपहार इत्यनर्थान्तरम्। 3. व्यभा 718 मटी प. 78 ; परिहाराच्छेदो गरीयान्। 4. जीसू 80-82 / 5. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 61, 62; उववासादिखमस्स ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि। 6. निभा 6524, चू पृ. 345, 346 / 7. धवला में एक वर्ष आदि की पर्याय छेद का उल्लेख मिलता है। (षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 61)
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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