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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 117 5. भावप्रतिक्रमण-मिथ्यात्व आदि में स्वयं प्रवृत्त न होना, दूसरों को प्रवृत्त न करना तथा प्रवृत्त होने वाले का अनुमोदन नहीं करना। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार यदि विषय के आधार पर इनकी विवक्षा न की जाए तो प्रथम मिथ्यात्व आदि चार प्रतिक्रमणों का भाव प्रतिक्रमण में समावेश हो जाता है। प्रतिक्रमण, सामायिक और प्रत्याख्यान में अंतर प्रश्न हो सकता है कि प्रतिक्रमण, सामायिक और प्रत्याख्यान में क्या अंतर है क्योंकि तीनों में पाप की निवृत्ति होती है। इसका यह समाधान है कि सामायिक में वर्तमान के सावध योगों से निवृत्ति होती है प्रत्याख्यान में भविष्य का त्याग किया जाता है तथा प्रतिक्रमण में अतीत में हुए पापों से निवृत्ति की जाती है लेकिन आवश्यक नियुक्तिकार ने प्रतिक्रमण का सम्बन्ध तीनों कालों से जोड़ा है। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रतिक्रमण तो अतीत का होता है फिर नियुक्तिकार ने इसका सम्बन्ध तीनों कालों से क्यों जोड़ा? आचार्य हरिभद्र ने टीका में इस प्रश्न का समाधान किया है। उनके अनुसार निंदा के द्वारा अशुभ योगों से निवृत्ति, यह अतीत का प्रतिक्रमण है। संवर द्वारा अशुभ योगों से निवृत्ति, यह वर्तमान का प्रतिक्रमण है तथा प्रत्याख्यान द्वारा अशुभ योगों से निवृत्ति, यह भविष्य का प्रतिक्रमण है। तत्त्वार्थ भाष्य की टीका में सिद्धसेनगणि ने प्रतिक्रमण का सम्बन्ध प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग-इन दो के साथ जोड़ा है। प्रतिक्रमण और आलोचना प्रायः सभी प्रायश्चित्त आलोचनापूर्वक होते हैं लेकिन प्रतिक्रमण में गुरु के समक्ष आलोचना करना आवश्यक नहीं है। इसका कारण बताते हुए दिगम्बर आचार्य कहते हैं कि छोटे अपराध की गुरु के समक्ष आलोचना करनी आवश्यक नहीं है, वह केवल प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाता है। प्रतिक्रमण और कल्प दश स्थितकल्पों में आठवां कल्प प्रतिक्रमण है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों का प्रतिक्रमण युक्त धर्म होता है लेकिन मध्यम तीर्थंकरों के समय में कारण उपस्थित होने पर प्रतिक्रमण होता है। प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु चंचल चित्त वाले तथा मूढलक्ष्य होते हैं अतः गमनागमन या विचारभूमि में लगने वाले अतिचारों के लिए नियमतः सुबह और शाम प्रतिक्रमण करते हैं लेकिन मध्यम तीर्थंकरों के साधु दृढ़ 1. आवनि 843 / 2. तवा 6/24 पृ.५३० : अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम। 3. आवनि 822 हाटी 2 पृ. 41 / 4. व्यभा 55 / 5. षद्ध पु. 13, 5, 4, 26, पृ. 60; अप्पावराहे गुरूहि विणा वट्टमाणम्हि होदि।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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