________________ 118 जीतकल्प सभाष्य बुद्धि वाले, एकाग्रचित्त तथा अमूढलक्ष्य होते हैं इसलिए वे अतिचार लगने पर तथा चित्त चंचल होने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं। ईर्या सम्बन्धी, आहार-सम्बन्धी, स्वप्न आदि से सम्बन्धित दोष नहीं लगने पर भी प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु नियमतः प्रतिक्रमण करते हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि अतिचार न लगने पर प्रतिक्रमण करना क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न के समाधान में भाष्यकार ने एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। एक राजा अपने राजकुमार के लिए रसायन बनवाना चाहता था। उसके लिए तीन वैद्य उपस्थित हुए। प्रथम वैद्य बोला- 'यदि दोष होगा तो मेरा रसायन उसे नष्ट कर देगा, यदि दोष नहीं होगा तो रोग हो जाएगा।' दूसरा वैद्य बोला- 'मेरी औषधि से रोग का हरण होगा लेकिन रोग के अभाव में गुण और दोष कुछ भी नहीं होगा। तीसरा वैद्य बोला-'दोषरहित होने के कारण मेरी औषधि दोष का नाश तो करेगी ही, दोष न होने पर वह वर्ण, रूप, लावण्य और यौवन में परिणत हो जाएगी।' प्रतिक्रमण तीसरे कुशल चिकित्सक के रसायन के समान है। यदि दोष होता है तो यह नाश करता है और यदि दोष नहीं होता तो निर्जरा कर देता है। मूलाचार में इस संदर्भ को अंधे घोड़े के दृष्टान्त से भी समझाया है। प्रतिक्रमण के अपराध-स्थान / आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण करने के निम्न स्थान निर्दिष्ट हैं• प्रतिसिद्ध का आचरण करने पर, जैसे अकाल में स्वाध्याय आदि। ' * करणीय कार्य न करने पर जैसे-काल में स्वाध्याय आदि न करने पर। * अर्हत् प्रज्ञप्त तत्त्वों पर अश्रद्धा करने पर। * विपरीत प्ररूपणा करने पर। हारिभद्रीय टीका में प्रतिक्रमण के जो स्थान निर्दिष्ट हैं, वे ईर्यापथिक प्रतिक्रमण की ओर निर्देश करते हैं। उसके अनुसार निम्न स्थानों में प्रतिक्रमण करना चाहिए - * प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके। 1. जीभा 2051, 2052, मूला 628, 629 / गईं। इसी प्रकार प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के समय 2. मूला 630 / साधु के अतिचार लगे अथवा न लगे, पर वह प्रतिक्रमण ३.जीभा 2053-57 / के सभी दण्डकों का उच्चारण करे, जिससे उसके जहां 4. एक राजा का घोड़ा अंधा होने पर वैद्यपुत्र से उपचार हेतु दोष लगा है, उसका प्रमार्जन हो जाए। (मूला 632 टी कहा गया। उसे औषध आदि का विशेष ज्ञान नहीं था। पृ. 464, 465) उसने घोड़े की आंख पर क्रमश: आंख की सभी दवाओं 5. आवनि 863 / का प्रयोग किया इससे अचानक उसकी आंखें अच्छी हो