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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 119 * भक्तपान का परिष्ठापन करके। * उपाश्रय का कूड़ा-कर्कट परिष्ठापित करके। * सौ हाथ की दूरी तय करके मुहूर्त भर उस स्थान में ठहरने पर। * यात्रापथ से निवृत्त होने पर। * नंदी-संतरण करने पर। * जो केवल अगुप्त अथवा केवल असमित है, किन्तु जिसने सहसा या अजानकारी में हिंसा नहीं की है, उसे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। हिंसा होने पर उसे तप प्रायश्चित्त आता है।' जीतकल्प के अनुसार प्रतिक्रमण के निम्न अपराध-स्थान हैं१. समिति-गुप्ति में प्रमाद-दुश्चेष्टा, दुर्भाषण तथा दुश्चिन्तन रूप अगुप्ति करना तथा ऊंचा मुख करके बातें करते हुए चलना, गृहस्थ सम्बन्धी सावध भाषा बोलना, उद्गम, उत्पादन आदि के दोषों में सावधानी न रखना, उपकरणों को ग्रहण करने एवं रखने में असावधानी रखना, प्रमादपूर्वक प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करना। .. 2. गुरु की आशातना-गुरु के कहने पर, बुलाने पर, कार्य में नियुक्त करने पर, पूछने पर एवं आज्ञा देने पर-इन पांच गुरु-वचनों के प्रत्युत्तर में शिष्य चुप रहता है, केवल हुंकारा देता है आदि छह प्रतिक्रियाएं करता है तो आशातना होती है। इस प्रकार गुरु की आशातना करने पर अथवा गुरु से प्रद्वेष करने पर। 3. गुरु के प्रति विनय का भंग-गुरु के आने पर अभ्युत्थान, अभिग्रहण, आसन-दान, सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म, जाते हुए गुरु को पहुंचाना-ये गुरु के प्रति विनय हैं अथवा ज्ञान-विनय, दर्शन-विनय आदि का पालन विनय है, इन दोनों प्रकार के विनय का भंग होने पर। 4. इच्छाकार मिथ्याकार आदि दशविध सामाचारी का पालन न करने पर। 5. लघुस्वक मृषा', अदत्त एवं पदार्थ के प्रति मूर्छा करने पर। 6. अविधि से खांसी आदि-मुख पर हाथ या मुखवस्त्र लगाए बिना जम्भाई, खांसी या छींक आने पर, 1. आवहाटी 2 पृ.५०। उदाहरण प्रायः सभी भाष्यों में मिलते हैं। उदाहरणार्थ, भिक्षार्थ २.व्यभा 61 / चलने पर मुनि कहता है कि आज मुझे एक ही द्रव्य ग्रहण 3. भाष्यकार ने गुरु के पांच वचन तथा शिष्य के छह करना है। अनेक द्रव्य ग्रहण करने पर जब उससे पूछा जाता प्रतिवचन से आशातना के तीस भेद किए हैं। (जीभा है तो वह कहता है-'मैं छह द्रव्यों में केवल एक द्रव्य 869-71) पुद्गल को ही ग्रहण कर रहा हूं।' यह लघुस्वक मृषावाद है। 4. भाष्यकार ने लघुस्वक मृषा के पन्द्रह भेद किए हैं। ये (जीभा 882-901)
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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