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________________ 120 जीतकल्प सभाष्य मुख पर हाथ लगाए बिना डकार लेने पर, नीचे की ओर पुतकर्षण किए बिना अधोवात करने पर। 7. छेदन-भेदन आदि असंक्लिष्ट कर्म करने पर। 8. कंदर्प, हास्य, विकथा आदि करने पर। 9. क्रोध, मान आदि कषाय करने पर। 10. इंद्रिय-विषयों में आसक्त होने पर। उत्तरगुण प्रतिसेवना रूप अपराध में अतिक्रम और व्यतिक्रम होने पर तथा अनजान में मूलगुण प्रतिसेवना रूप अतिक्रम होने पर। मिथ्या दुष्कृत रूप (मिच्छामि दुक्कडं) प्रतिक्रमण के निम्न अपराध-स्थान हैं। * हिंसा न होने पर भी यतना युक्त मुनि के समिति-गुप्ति में स्खलना होने पर। * जानते हुए छोटी-छोटी बातों में स्नेह, भय, शोक तथा बकुशत्व आदि करने पर। दिगम्बर परम्परा में कुछ अंतर के साथ प्रतिक्रमण करने के ये स्थान निर्दिष्ट हैं• पांच इंद्रिय और मन का दुष्प्रयोग होने पर। * वचन का दुष्प्रयोग होने पर। * आचार्य से हाथ-पांव आदि टकराने पर। * पैशुन्य और कलह करने पर। * वैयावृत्त्य और स्वाध्याय आदि में प्रमाद करने पर। * गोचरी करते हुए लिंगोत्थान होने पर। * अन्य के साथ संक्लेश युक्त क्रिया करने पर। * व्रत, समिति, गुप्ति आदि में स्वल्प अतिचार लगने पर। प्रतिक्रमण के लाभ उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर प्रतिक्रमण से होने वाले लाभों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रतिक्रमण से साधक व्रत में होने वाले छेदों को ढ़क देता है। छोटा छेद भी आगे जाकर नौका को डुबो सकता है। प्रतिक्रमण करने से व्रतों में पुनः शक्ति का संचार हो जाता है। व्रत के छिद्र पिहित होने पर जीव 1. जीसू 9, 10 विस्तार हेतु देखें जीभा 784-912, त 9/22 भाटी पृ. 251 / 2. व्यभा 98 मटी प. 35 / 3. जीसू 11, 12 विस्तार हेतु देखें जीभा 913-31 / 4. काअटी पृ. 343, 344 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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