________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 121 के आस्रव आने का मार्ग रुक जाता है। आस्रव रुकने पर साधु का चारित्र अशबल-धब्बों से रहित हो जाता है। वह आठ प्रवचन-माताओं-समिति-गुप्ति में सावधान होकर संयम योग में एकरूप अर्थात् उससे अभिन्न हो जाता है। इससे जीव सुप्रणिहित इन्द्रिय वाला हो जाता है। तात्पर्य यह है कि वह असद् मार्ग से अपनी इंद्रियों को हटाकर सन्मार्ग में स्थापित कर लेता है। तदुभय प्रायश्चित्त तदुभय प्रायश्चित्त में आलोचना और प्रतिक्रमण का मिश्रण है। जिस पाप का सेवन करने के पश्चात् गुरु के पास सम्यक् आलोचना की जाती है तथा गुरु के द्वारा निर्दिष्ट प्रतिक्रमण किया जाता है, वह तदुभय प्रायश्चित्त है। इसका उभय प्रायश्चित्त नाम भी मिलता है। भाष्यकार कहते हैं कि जैसे तीक्ष्ण जल-प्रवाह में विषम अथवा गहरे कीचड़ युक्त मार्ग में प्रयत्नपूर्वक चलते हुए भी अवश होकर व्यक्ति उसमें गिर जाता है, वैसे ही यतनायुक्त सुविहित मुनि के द्वारा प्रयत्नपूर्वक चर्या करने पर भी सहसा कर्मोदय के कारण विराधना हो जाती है। ऐसे यतनाशील मुनि की विशोधि तदुभय प्रायश्चित्त से होती है। तदुभय प्रायश्चित्त के स्थान हाथी, अग्नि आदि दिखाई देने से हड़बड़ी होने पर, चोर आदि का भय होने पर, क्षुधा, पिपासा आदि परीषहों से आतुर होने पर, आपत्ति में सहसा या अजानकारी में अतिचार-सेवन करने पर, वात, पित्त एवं श्लेष्म आदि से संबंधित रोग से परवश होने अथवा यक्षावेश या मोहावेश से परवश होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा विकलेन्द्रिय आदि जीवों की विराधना करने पर और महाव्रतों में अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार दोष की आशंका होने पर तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, जैसे-मैंने हिंसा की या नहीं, झूठ बोला या नहीं, चोरी की या नहीं, स्त्री का स्पर्श हुआ या नहीं, इंद्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष किया या नहीं, सूर्यास्त से पूर्व पात्र के लेप धोए या नहीं, इन सबकी सम्यक् अवगति न होने पर तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार अनेक प्रकार के शब्द सुनने पर कुछ शब्दों पर राग या द्वेष का भाव आया या नहीं, इस प्रकार का संदेह होने पर तदुभय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार अन्य इंद्रियों के विषयों में राग-द्वेष हुआ या नहीं, यह निर्णय न कर पाने पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है। यदि यह निश्चित हो जाए कि अमुक शब्दों के प्रति राग या द्वेष आया है तो मुनि को तप प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1.29/12 / 4. जीभा 951-53 / . 2. जीभा 721 / 5. जीभा 933-44, व्यभा 100-102, आवचू 2 पृ. 246 / 3. षट्ध पु. 13/5,4,26 पृ.६०; सगावराहं गुरुणमालोचि य 6. व्यभा 103 / गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छित्तं। ७.व्यभा 104 /