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________________ 122 जीतकल्प सभाष्य इसी प्रकार उपयुक्त मुनि के ज्ञान, दर्शन, चारित्र से संबंधित अपराध-पदों में तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार केशलोच, नख-छेदन, स्वप्न में मैथुन सेवन, इंद्रियों का अतिचार, रात्रिभोजन, पक्ष, मास तथा वर्ष आदि में लगने वाले दोषों में तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। धवला के अनुसार दुःस्वप्न आदि में तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।' __तत्त्वार्थ राजवार्तिक में आलोचना और प्रतिक्रमण के अपराधस्थानों का वर्णन है। बाद में तदुभय से तप प्रायश्चित्त तक के लिए ग्रंथकार ने उल्लेख किया है कि भय, त्वरा, विस्मरण, अनवबोध, अशक्ति तथा व्यसन आदि से महाव्रतों में अतिचार दोष लगने पर छेद से पहले के छह प्रायश्चित्त देने चाहिए। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा की टीका के अनुसार दिन या रात्रि के अंत में गमनागमन करने पर भी तदुभय प्रायश्चित्त होता है। विवेक प्रायश्चित्त ___ कम या अधिक अकल्प्य आहार ग्रहण करने पर उसको विधिपूर्वक परिष्ठापित करना विवेक प्रायश्चित्त है। संसक्त अन्न-पान-उपकरण आदि का विभाग करना विवेक प्रायश्चित्त है। राजवार्तिक में इसके लिए उत्सर्जन प्रायश्चित्त शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्त्वार्थ भाष्य में विवेक, विवेचन, विशोधन और प्रत्युपेक्षण को एकार्थक माना है। विवेक प्रायश्चित्त तब होता है, जब साधु अजानकारी में अशुद्ध ग्रहण करता है और बाद में उसे ज्ञात होता है कि गृहीत आहार अशुद्ध था। धवला में विवेक प्रायश्चित्त की व्याख्या बिल्कुल भिन्न है। विवेक प्रायश्चित्त के स्थान विवेक प्रायश्चित्त के ये स्थान हैं१. आधाकर्मिक वसति, शय्या, उपधि आदि ज्ञात होने पर।१२ / 1. जीसू 15 / 11. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 60,61 / 2. काअटी पृ. 344 / १२.शय्या, उपधि, वसति आदि प्रातिहारिक वस्तुओं के 3. षट्ध पु. 13/5, 4,26 पृ.६०। आधाकर्मिक आदि ज्ञात होने पर उसका परित्याग करना 4. तवा 9/22 पृ.६२२, अनध 7/53 / विवेक प्रायश्चित्त है, न कि परिष्ठापित करना / व्यवहार 5. काअटी पृ. 344 / भाष्य में इसे एक उदाहरण से समझाया है। कुछ मुनि 6. जीभा 722 / प्रचुर अन्न-पान वाले ग्राम में गए लेकिन वसति के 7. तवा 9/22, पृ.६२१; संसक्तान्नपानोपकरणादिविभजनं अभाव में वे वहां नहीं रुके। नहीं रुकने का कारण बताते विवेकः। हुए साधुओं ने कहा-'यहां उपयुक्त वसति नहीं है।' 8. तवा 9/22, पृ.६२२। साधुओं के जाने के बाद श्रावकों ने उपाश्रय का निर्माण 9. तस्वोभा 9/22 // करवा दिया। कुछ समय बाद अन्य मुनि वहां आए। 10. जीसू 16, त 9/22 भाटी पृ. 251; उपयुक्तेन गीतार्थेन सही स्थिति अवगत होने पर साधुओं ने उस वसति का गृहीतं प्राक् पश्चादवगतमशुद्धं विवेकार्हम्। विवेक-परित्याग कर दिया। (व्यभा 109)
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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