________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 123 2. पर्वत, राहु, बादल, कुहासा और रज से सूर्य आवृत होने पर सूर्योदय हो गया है, इस अशठ भाव से अशन आदि ग्रहण करने पर, इसी प्रकार सूर्यास्त के बाद अशन आदि रहने पर। 3. प्रथम पौरुषी में आनीत अशन चतुर्थ पौरुषी तक कालातीत हो जाता है, उसे रखने पर। 4. आधे योजन से अधिक दूरी तक ले जाने वाले मार्गातीत अशन को रखने पर। 5. ग्लान, आचार्य, बाल और वृद्ध के निमित्त से लाए हुए आहार के बचने पर। विवेक में औचित्य आधाकर्म से होने वाले दोषों को जानकर साधु दो प्रकार से उसका विवेक-परिहार करता है१. विधि-परिहार 2. अविधि-परिहार। जो साधु अविधि से आधाकर्म का विवेक करता है, वह न साधुत्व का सम्यक् पालन कर सकता है और न ही ज्ञान आदि का लाभ प्राप्त कर सकता है। अविधि-परिहार में ग्रंथकार ने एक भिक्षु की कथा का उल्लेख किया है। भिक्षु के द्वारा पूछने पर गृहस्वामी ने बताया कि यह शाल्योदन मगध के गोबरग्राम से आया है। वह उसकी जानकारी हेतु गोबरग्राम जाने लगा। मार्ग का निर्माण तो कहीं अधाकर्मी नहीं है, इस आशंका से वह मूल मार्ग को छोड़कर कांटे, सांप आदि से युक्त उन्मार्ग से जाने लगा तथा वृक्ष की छाया को भी आधाकर्मिक समझकर छाया का भी परिहार करने लगा। वह रास्ते में ही मूर्च्छित होकर संक्लेश को प्राप्त हो गया। पंचकल्पभाष्य में भी इस विवेक का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। यदि साधु-शालि की उत्पत्ति कहां से हुई, कहीं हमारे शय्या-संस्तारक के लिए तो वृक्ष नहीं बोएं हैं। गाय साधु के लिए तो नहीं खरीदी या दुही गई है, इस प्रकार की गवेषणा करना अविधि विवेक है क्योंकि आहार-उपधि और शय्या की निष्पत्ति अनेक द्रव्यों से होती है, जैसे शाक में डाले गए मसालों में, हिमाचल प्रदेश में पीपल, मलय देश में मिर्च तथा रमढ देश में हींग आदि की निष्पत्ति होती है। उन सबके मूल की गवेषणा करने पर साधु के ज्ञान आदि की हानि होती है तथा खोज करते हुए रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो सकती है।' विधि-परिहरण में साधु चार बातों पर ध्यान देता है-द्रव्य, कुल, देश और भाव। इनकी व्याख्या करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि विवक्षित देश में असंभाव्य द्रव्य की उपलब्धि, छोटे परिवार में प्रचुर खाद्य की प्राप्ति तथा अत्यधिक आदरपूर्वक दान हो तो वहां आधाकर्म की संभावना हो सकती है। जो वस्तु जहां सामान्य रूप से लोगों के द्वारा प्रचुर रूप में काम में ली जाती है, वह यदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो तो पृच्छा 3. पंकभा 1689-91 / १.जीसू 16, 17, विस्तार हेतु देखें 955-71 / 2. पिनि 89/1-3, मटी प. 72, 73 /