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________________ 124 जीतकल्प सभाष्य की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे मालवा देश में मण्डक (एक प्रकार की रोटी) प्रचुर मात्रा में होता है, वहां उस द्रव्य के विषय में आधाकर्म की आशंका नहीं होती लेकिन वहां भी यदि परिवार छोटा हो और द्रव्य प्रचुर मात्रा में हो तो आधाकर्म की शंका हो सकती है। यदि कोई दाता अनादरपूर्वक दान दे रहा है, वहां भी प्रायः आधाकर्म की आशंका नहीं रहती क्योंकि जो दाता आधाकर्म आहार निष्पन्न करता है, वह प्रायः आदर भी प्रदर्शित करता है। अमुक घर में आधाकर्म भोजन निष्पन्न हुआ है अथवा नहीं, इसकी परीक्षा करने की विधि को ग्रंथकार ने मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। मुनि के द्वारा पूछने पर यदि गृहस्वामिनी मायापूर्वक कहती है कि यह खाद्य-पदार्थ घर के सदस्यों के लिए बनाया गया है, आपके लिए नहीं / यह सुनकर यदि घर के अन्य सदस्य एक दूसरे को टेढ़ी नजरों से देखते हैं अथवा सलज्ज एक दूसरे को देखकर मंद हास्य करते हैं, तब साधु को उस देय वस्तु को आधाकर्मिक समझकर परिहार-विवेक कर देना चाहिए। यदि पूछने पर दानदात्री गुस्से में आकर यह कहती है कि आपको इसकी क्या चिन्ता है? ऐसी स्थिति में आधाकर्म की आशंका नहीं रहती, मुनि निःशंक रूप से वह आहार ग्रहण कर सकता है। इन सब कारणों से भी आहार शुद्ध है या नहीं, यह ज्ञात न हो तो नियुक्तिकार ने समाधान दिया है कि यदि मुनि उपयुक्त होकर शुद्ध आहार की गवेषणा कर रहा है तो वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करता हुआ भी शुद्ध है अर्थात् कर्मों का बंधन नहीं करता। यदि वह अनुपयुक्त होकर वैचारिक दृष्टि से आधाकर्म आहार ग्रहण में परिणत है तो वह प्रासुक और एषणीय आहार ग्रहण करता हुआ भी अशुभ कर्मों का बंध करता है। विशोधिकोटि और अविशोधि कोटि का विवेक अविशोधिकोटि को उद्गमकोटि भी कहा जा सकता है। दोष से स्पृष्ट आहार को उतनी मात्रा में निकाल देने पर शेष आहार मुनि के लिए कल्पनीय हो जाता है, वह विशोधिकोटि कहलाता है तथा जो आहार जिस दोष से दूषित है, उस आहार को अलग करने पर भी जो आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता, वह अविशोधिकोटि कहलाता है। आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, बादरप्राभृतिका और अध्यवतर के अंतिम दो भेद-ये अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। इसमें भी औद्देशिक, मिश्रजात और अध्यवतर के कुछ भेद अविशोधिकोटि में तथा कुछ भेद विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। जैसे १.पिनि 89/4-7, मटी प.७३। 2. पिनि 89/8 मटी प.७३, 74 / 3. पिनि 90 मटी प.७४। 4. पिनिमटी प. 116 ; यद्दोषस्पृष्टभक्ते तावन्मात्रेऽपनीते सति शेष कल्पते स दोषो विशोधिकोटिः, शेषस्त्वविशोधि कोटिः। ५.पिनि 190 मटी प. 117 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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