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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 125 औद्देशिक के अन्तर्गत विभाग औद्देशिक के तीनों भेद अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। अध्यवपूरक के अंतिम दो भेद स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र-ये दो अविशोधिकोटि में तथा स्वगृहयावदर्थिकमिश्र विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। अविशोधिकोटि के अवयव से युक्त लेपकृद् या अलेपकृद् पदार्थ यदि विशुद्ध आहार के साथ मिल जाता है तो उस आहार को त्यक्त करने के पश्चात् भी पात्र को कल्पत्रय-तीन बार साफ करना आवश्यक है अन्यथा पूति दोष होता है। शेष ओघ औद्देशिक, मिश्रजात का आद्य भेद (यावदर्थिकमिश्र), उपकरणपूति, स्थापना, सूक्ष्म प्राभृतिका, प्रादुष्करण, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, अभ्याहृत, उद्भिन्न, मालापहृत, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अध्यवपूरक का आद्य भेद (स्वगृहयावदर्थिक)-ये सब दोष अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं।' अविशोधिकोटि आहार के स्पृष्ट होने पर कल्पत्रय से शोधन करने की आवश्यकता नहीं रहती। अविशोधि कोटि के संदर्भ में ग्रंथकार ने विवेक की विस्तार से व्याख्या की है। चतुर्भगी के माध्यम से स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि शुद्ध शुष्क चने आदि में यदि विशोधिकोटि शुष्क वल्ल आदि गिर जाएं तो बिना जल-प्रक्षेप के सुगमता से उनको अलग किया जा सकता है। यदि शुद्ध शुष्क चने आदि में विशोधिकोटिक आर्द्र तीमन आदि गिर जाए तो उसमें कांजिक आदि डालकर अशुद्ध तीमन को बाहर निकाला जा सकता है। तीसरे भंग में यदि शुद्ध आई तीमन में विशोधिकोटिक शुष्क चने आदि का प्रक्षेप हो जाए तो हाथ डालकर चने आदि को निकाला जा सकता है तथा चतुर्थ भंग में यदि अशुद्ध आर्द्र तीमन में विशोधिकोटि आई तीमन का मिश्रण हो जाए, उस स्थिति में यदि दुर्लभ द्रव्य है, जिसकी पुनः प्राप्ति संभव नहीं है तो अशठ भाव से उतना अंश निकाला जा सकता है, शेष का परित्याग कर दिया जाता हैं। यदि उसके बिना काम चलता हो तो सम्पूर्ण का परित्याग कर दिया जाता है क्योंकि आर्द्र से आई को पृथक् करना संभव नहीं होता। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त आगमोक्त विधि से शरीर का त्याग अर्थात् ममत्व-विसर्जन करना व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग है। 1. कुछ आचार्य विभाग के अन्तर्गत कर्म औद्देशिक के अंतिम तीन भेदों को अविशोधि कोटि में रखते हैं (पिंप्रटी प. 49) / २.जीभा 1297, 1298 / ३.पिनिमटी प.११७। ४.जीभा 1308-11, पिनि 192/2-5 मटी प. 118, 119 / ५.पिनिमटी प. 118; इह निर्वाहे सति विशोधिकोटिदोष__ सम्मिश्रं सकलमपि परित्यक्तव्यम्, अनिर्वाहे तु तावन्मात्रम्। 6. उशांटी प.५८१ ; कायः-शरीरं तस्योत्सर्गः-आगमोक्तनीत्या परित्यागः कायोत्सर्गः।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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