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________________ 126 जीतकल्प सभाष्य सिद्धसेनगणि के अनुसार प्रणिधानपूर्वक विशेष रूप से उत्सर्ग करना व्युत्सर्ग है। धवलाकार के अनुसार शरीर और आहार में मन और वचन की प्रवृत्ति को हटाकर ध्येय वस्तु में एकाग्रता से चित्त का निरोध करना व्युत्सर्ग है। सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक आदि की परिभाषा इसी की संवादी है। अनगारधर्मामृत में व्युत्सर्ग की निरुक्तपरक व्याख्या मिलती है। भगवान् महावीर ने इसे सब दुःखों से मुक्ति का उपाय माना है। उत्तराध्ययन के छब्बीसवें अध्ययन में मुनि की दिनचर्या में अनेक बार कायोत्सर्ग का विधान है। मुनि के लिए अभिक्खणं काउस्सग्गकारी विशेषण कायोत्सर्ग के महत्त्व को प्रकट करने वाला है। व्युत्सर्ग, उत्सर्ग और कायोत्सर्ग-ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। आवश्यक नियुक्ति में उत्सर्ग के ग्यारह पर्यायवाची नाम मिलते हैं-१. उत्सर्ग, 2. व्युत्सर्जन, 3. उज्झन, 4. अवकिरण, 5. छर्दन, 6. विवेक, 7. वर्जन, 8. त्यजन, 9. उन्मोचन, 10. परिशातन, 11. शातन / आचार्य उमास्वाति ने व्युत्सर्ग और प्रतिष्ठापन को एकार्थक माना है। यहां प्रतिष्ठापन शब्द परित्याग के अर्थ में है। आचार्य तुलसी ने कायिकध्यान, कायगुप्ति, कायविवेक, कायव्युत्सर्ग और कायप्रतिसंलीनता को एकार्थक माना है। ममत्व का छेदन किया जाता है। राजवार्तिक के अनुसार अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा समाप्त होने पर व्युत्सर्ग सिद्ध होता है। जैन आचार्यों ने इसे भावचिकित्सा का बहुत बड़ा साधन माना है अतः व्रत में अतिचार लगने पर कायोत्सर्ग द्वारा उसकी शोधि का उपाय बताया गया है। कायोत्सर्ग करने मात्र से जिस पाप की शुद्धि हो जाती है, वह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है।२ व्युत्सर्ग तीन प्रकार से किया जा सकता * ऊर्ध्व-खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना। * निषीदन-बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना। 1. त 9/22 भाटी पृ. 251 ; विशिष्टउत्सर्गो व्युत्सर्गः- ६.उ 26/38 / प्रणिधानपूर्वको निरोधः। 7. दशचू 2/7 / 2. षट्ध पु. 8/3, 41 पृ. 85 ; सरीराहारेसु हु मणवयणप- 8. आवनि 990 / वृत्तीओ ओसारियज्ञयम्मि एयग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो 9. तस्वोभा 9/22 ; व्युत्सर्ग प्रतिष्ठापनमित्यनर्थान्तरम्। णाम। 10. त 9/22 भाटी पृ. 251 ; प्रतिष्ठापनशब्दः परित्यागार्थः। 11. तवा 9/26 टी पृ.६२५; नि:संगत्व-निर्भयत्वजीविताशा४. तवा 9/22 पृ. 621 / व्युदासाद्यर्थो व्युत्सर्गः। 5. अनध 7/94 ; बाह्याभ्यन्तरदोषा ये, विविधा बन्धहेतवः। 12. जीभा 723 / यस्तेषामुत्तमःसर्गः, स व्युत्सर्गो निरुच्यते।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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