________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 127 * त्वग्वर्तन-सोए-सोए कायोत्सर्ग करना। कायोत्सर्ग के प्रकार कायोत्सर्ग दो प्रकार का होता है-चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग। 1. चेष्टा कायोत्सर्ग-भिक्षु के लिए प्रायः सभी प्रवृत्तियों को सम्पन्न करने के पश्चात् कायोत्सर्ग का विधान है। भिक्षा आदि प्रवृत्ति के पश्चात् तथा दैवसिक अतिचारों की विशोधि हेतु किया जाने वाला कायोत्सर्ग चेष्टा कायोत्सर्ग है। सारी प्रायश्चित्त-विधि चेष्टा कायोत्सर्ग से सम्बन्धित है। 2. अभिभव कायोत्सर्ग- मोहनीय कर्म की भय आदि प्रकृतियों का अभिभव करने के लिए किया जाने वाला कायोत्सर्ग अभिभव कायोत्सर्ग कहलाता है। अभिभव कायोत्सर्ग किसी व्यक्ति का पराभव करने के लिए नहीं किया जाता, अपितु दैविक, मानुषिक और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपद्रव होने की स्थिति में उत्पन्न भय तथा कर्म रूपी सेना के नायक क्रोध आदि कषायों का पराभव करने के लिए किया जाता है।' ___ अभिभव कायोत्सर्ग के दो प्रयोजन हैं –पराभिभूत और पराभिभव। चूर्णिकार के अनुसार हूण, शक्र आदि आक्रामक लोगों से अभिभूत होकर 'मैं शरीर आदि सबका व्युत्सर्ग करता हूं, इस संकल्प के साथ कायोत्सर्ग करना पराभिभूत अभिभव कायोत्सर्ग है तथा अनुलोम-प्रतिलोम उत्सर्ग करने वाले देव मनुष्य आदि को तथा भय, क्षुधा, अज्ञान, ममत्व और परीषह–इन सबको अभिभूत करने का संकल्प लेकर कायोत्सर्ग करना पराभिभव कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का काल ... अभिभव कायोत्सर्ग का जघन्य काल अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल एक वर्ष होता है। बाहुबलि एक वर्ष कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थिर रहे। साध्वियों के लिए अभिभव कायोत्सर्ग प्रतिषिद्ध है। ... शुद्धि की अपेक्षा से आवश्यक नियुक्ति में कायोत्सर्ग के चार भेद मिलते हैं१. चारित्रशुद्धि सम्बन्धी कायोत्सर्ग, जो पचास श्वासोच्छ्वास प्रमाण होता है। 2. दर्शनविशोधि के निमित्त चतुर्विंशति का कायोत्सर्ग, यह पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण होता है। १.ओभा 152; परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति, जथा तित्थगरो देवमणुनिसीय-तुयट्टण, ठाणं तिविहं तु होइ नायव्वं / यादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय २.आवनि 991 / काउस्सग्गं कातुं प्रतिज्ञां पूरेति। आवनि 991/2-5 / 5. आवनि 992 हाटी 2 पृ. 188 / आव 2 पृ. 248 ; अभिभवो णाम अभिभूतो वा परेणं ६.बभाटी प.१५७२ ; तत्राभिभवकायोत्सर्गस्तासां प्रतिषिद्ध परं वा अभिभूय कुणति, परेणाभिभूतो, तथा हूणादीहिं इति। अभिभूतो सव्वं सरीरादि वोसिरामि त्ति काउस्सग्गं करेति।