________________ 128 जीतकल्प सभाष्य 3. श्रुतज्ञान की वृद्धि हेतु पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण किया जाने वाला कायोत्सर्ग। 4. सिद्धों की स्तुति हेतु किया जाने वाला कायोत्सर्ग। आवश्यक नियुक्ति में शारीरिक और मानसिक-इन दो दृष्टियों से कायोत्सर्ग के भेदों पर विचार किया गया है। शरीर से स्थिर खड़े रहना द्रव्य उत्थान है तथा ध्येय में एकाग्र होकर शुभ ध्यान में कायोत्सर्ग करना भावोत्थान है। कभी-कभी कोई व्यक्ति बैठे-बैठे भी मानसिक ध्यान की दृष्टि से उत्थित हो सकता है और कोई खड़े-खड़े भी मानसिक दृष्टि से निषण्ण-बैठा हुआ हो सकता है अत: यहां विरोधाभास नहीं अपितु शारीरिक स्थिति और मानसिक भाव-धारा के आधार पर कायोत्सर्ग के नौ प्रकार निर्दिष्ट हैं१. उच्छ्रित उच्छ्रित-खड़े खड़े धर्म और शुक्ल-इन दो ध्यानों में प्रवृत्त होना उच्छ्रित उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। स्तम्भ की भांति शरीर का उन्नत और निश्चल होना द्रव्य उच्छ्रित तथा धर्म और शुक्ल रूप ध्यान करना भाव उच्छ्रित है। यहां दोनों दृष्टियों से उत्थित है अतः उच्छ्रित उच्छ्रित भेद है। 2. खड़े होकर धर्म शुक्ल आदि किसी ध्यान में प्रवृत्त न होना यह उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। 3. खड़े होकर आर्त और रौद्र-ये दो ध्यान करना द्रव्यतः उच्छ्रित और भावतः निषण्ण कायोत्सर्ग है। 4. बैठे-बैठे धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना द्रव्यतः निषण्ण और भावतः उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। 5. बैठकर धर्म और शुक्ल आदि किसी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होना निषण्ण कायोत्सर्ग है। 6. बैठ-बैठे आर्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-निषण्ण कायोत्सर्ग है।' 7. सोकर धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। 8. सोकर धर्म और शुक्ल आदि किसी भी ध्यान में संलग्न नहीं होना निषण्ण कायोत्सर्ग है। 9. सोकर आर्त और रौद्र ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-निषण्ण कायोत्सर्ग है। . मूलाचार में इन नौ भेदों को चार भेदों में समाविष्ट कर दिया है। उसके अनुसार उत्थितोत्थित, उत्थित-निविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट-निविष्ट-कायोत्सर्ग के ये चार भेद हैं। भगवती आराधना में खड़े-खड़े कायोत्सर्ग के सात-भेद मिलते हैं१. साधारण-खम्भे आदि के सहारे निश्चल होकर खड़े रहना। 2. सविचार-दूसरे स्थान पर जाकर एक प्रहर अथवा एक दिन तक खड़े रहना। 3. संनिरुद्ध-अपने स्थान पर निश्चल होकर खड़े रहना। 4. वोसट्ट-शरीर की प्रवृत्ति को पूर्णतया छोड़कर कायोत्सर्ग करना। 1. आवनि 1025/7, पंव 482-86 / 3. मूला 675 ; उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठउट्ठिदो चेव। 2. आवनि 996-1004 / उवविट्ठणिविट्ठो वि य, काओसग्गो चट्ठाणो।।