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________________ 516 जीतकल्प सभाष्य 2499. पालक पुरोहित ने स्कंदक प्रमुख पांच सौ शिष्यों को पूर्व विराधना के कारण यंत्र में पील दिया।' 2500. मुनि सुव्रतस्वामी के तीर्थ में स्कंदक ने पालक को पहले वाद में पराजित किया था। उस समय वह प्रद्वेष को प्राप्त हो गया था। 2501. परपक्ष में परपक्ष के अन्तर्गत चार प्रकार के दुष्ट होते हैं -1. राजा 2. अभिमर 3. वधपरिणत 4. और वधक। 2502. इन चारों के प्रायश्चित्तों को मैं यथाविधि कहूंगा। सरसों की भाजी आदि से सम्बन्धित दुष्टता में साधु का लिंग-परित्याग किया जाता है। 2503. जो साधु स्वपक्ष में राजा आदि के वध में परिणत या वधक है, उसे लिंग पाराञ्चित दिया जाता है। जो उसकी अनुमोदना करता है, वह भी लिंग पारांचिक है। 2504. जो श्रावक या अश्रावक परपक्ष या स्वपक्ष में दुष्ट है, उसके लिए लिंग निषिद्ध है। अतिशयधारी उसे लिंग दे सकते हैं। 2505. परपक्ष में परपक्ष-राजा आदि के प्रति कोई प्रदुष्ट हो जाए तो उसे उस देश में दीक्षित करना कल्पनीय नहीं होता। अन्य देश में उपशान्त होने पर दीक्षित करना कल्पता है। 2506. यह कषायदुष्ट का वर्णन है, अब मैं विषयदुष्ट के बारे में कहूंगा। उसकी भी स्वपक्ष और परपक्ष से चतुर्भंगी होती है। 2507. संयत यदि तरुणी संयती में आसक्त है, यह प्रथम भंग है। संयत शय्यातर की लड़की या परतीर्थिक साध्वी में आसक्त है, यह दूसरा भंग है। गृहस्थ तरुणी साध्वी में आसक्त है, यह तीसरा भंग है तथा एक गृहस्थ गृहस्थ स्त्री में आसक्त है, यह चौथा भंग है। 2508. यदि रजोहरण आदि लिंग से युक्त संयमी लिंग युक्त साध्वी के साथ प्रतिसेवना करता है तो वह पापी साधु नरक आयुष्य का बंध करता है तथा आशातना से उसे अबोधि की प्राप्ति होती है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६४।। २.बृहत्कल्पभाष्य में इस संदर्भ में एक अपवाद दिया गया है कि जो व्यक्ति राजा, युवराज अथवा सम्पन्न श्रेष्ठी आदि का वधक है, उसे उस देश में दीक्षा देना नहीं कल्पता किन्तु अन्य देश में अज्ञात स्थिति में दीक्षा देना कल्प्य है। १.बुभा 4996 ; रन्नो जुवरन्नो वा, वधतो अहवा वि इस्सरादीणं।सो उसदेसिण कप्पड़,कप्पति अण्णम्मि अण्णाओ।। 3. इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार बनेगी• स्वलिंगी साधु की स्वलिंगी साध्वी के साथ प्रतिसेवना। * स्वलिंगी साधु की गृहस्थ स्त्री के साथ प्रतिसेवना। * स्वलिंगी साधु की अन्यलिंगी परिव्राजिका के साथ प्रतिसेवना। * अन्यलिंगी साधु की अन्यलिंगी साध्वी के साथ प्रतिसेवना। इसमें चौथा भंग शन्य है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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