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________________ अनुवाद-जी-९५,९६ 517 2509. यदि रजोहरण आदि लिंग से युक्त संयमी लिंग युक्त साध्वी के साथ प्रतिसेवना करता है तो वह पापी साधु सभी तीर्थंकरों की आर्याओं तथा संघ की आशातना करता है। 2510. वह सभी पापियों में पापतर होता है। वैसे साधु को देखकर उसके साथ किसी प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए जो जिनपुंगवमुद्रा-श्रमणी को नमन करके उसी को भ्रष्ट करता है। 2511. जिनमुद्रा के तिरस्कार से वह जन्म, जरा, मरण और वेदना से संकुल तथा पापमल के समूह से आच्छन्न इस अपार संसार में परिभ्रमण करता रहता है। 2512. यह प्रथम भंग (स्वपक्ष स्वपक्ष) है। इसमें पारांचित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। द्वितीय भंग में भी उपशान्त न होने पर चरम-पारांचित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2513. जिस क्षेत्र में दोष उत्पन्न होता है, उसको उसी क्षेत्र से पाराञ्चित कर दिया जाता है। वह दोष का सेवी या असेवी अथवा गीतार्थ या अगीतार्थ हो सकता है। 2514. जिस उपाश्रय, निवेशन' -गृह, वाटक, साही-गली, ग्राम, देश, राज्य, कुल, गण या संघ में दोष का सेवन करता है, वहां से निकालकर उसे पाराञ्चित कर दिया जाता है। (जो कुल, गण या संघ से अलग किया जाता है. वह क्रमश: कल पाराञ्चित. गण पाराञ्चित तथा संघ पाराञ्चित आदि कहलाता है।) 2515. शिष्य प्रश्न करता है कि साधक के उपशान्त हो जाने पर भी उन-उन स्थानों में विहार करने या जाने का निषेध क्यों किया गया है? आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि उस स्थान में जाने से पुनः वही दोष पुनरुक्त हो सकता है। 2516. जिन ग्राम या स्थानों में साध्वियां विहरण करती हैं, उन स्थानों में साधु को विहरण करने का वर्जन है। यह प्रथम भंग स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट की बात है। शेष द्वितीय आदि भंगों में भी वे स्थान वर्जनीय हैं। 2517. यह प्रथम भंग कषाय दुष्ट है। शेष द्वितीय आदि तीन भंग उच्चारित सदृश तथा शिष्य की मति को व्युत्पन्न करने के लिए हैं। 2518. यहां उभयदुष्ट (कषायदुष्ट और विषयदुष्ट) तथा राजवधक का वर्णन किया गया है। राजा की पटरानी का प्रतिसेवक इस प्रकार होता है। 2519. राजा की पटरानी अथवा जो जिसको इष्ट होती है, वह उसके लिए प्रधान होती है। अग्र और प्रधान-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। 2520. राजा की पटरानी के साथ जो बार-बार प्रतिसेवना करता है तथा लोक में यह बात प्रकट हो जाती है तो अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2521. सूत्र (95) में आए 'च' शब्द से अन्य युवराज आदि को जो इष्ट होती हैं, वह भी राज-पटरानी की भांति ज्ञातव्य हैं। १.दो गांवों के बीच दो या अनेक घर, जिनका प्रवेश और निर्गम का एक ही द्वार हो। १.बृभाटी पृ.१३३८ निवेशनम्-एकनिर्गमप्रवेशद्वारो द्वयोामयोरपान्तराले यादिगृहाणां सन्निवेशः।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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