________________ 518 जीतकल्प सभाष्य 2522. शिष्य जिज्ञासा करता है कि अन्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर चरम-पाराञ्चित क्यों नहीं दिया जाता? आचार्य उत्तर देते हैं कि राजपत्नी के साथ प्रतिसेवना करने पर बहुत दोष होते हैं। अन्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर अपना ही अनिष्ट होता है। २५२३.राजा की अग्रमहिषी-पटरानी के साथ प्रतिसेवना करने पर कल, गण.संघ तथा स्वयं का विनाश आदि दोष होते हैं लेकिन सामान्य महिलाओं के साथ दोष सेवन करने पर मुनि के स्वयं का विनाश होता . है। 2524. व्रत का लोप और शरीर की हानि आदि दोष तो होते हैं लेकिन कुल, गण आदि का विनाश नहीं होता इसलिए अन्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर अंतिम प्रायश्चित्त -पाराञ्चित प्राप्त नहीं होता। 2525. यह दुष्ट से सम्बन्धित पाराञ्चित का वर्णन किया, अब मैं प्रमत्त के बारे में कहूंगा। वह पांच ... प्रकार का होता है-१. कषाय-कलुषता, 2. विकथा 3. मद्य 4. इंद्रिय और 5. निद्रा। 2526. क्रोध आदि चार कषाय, स्त्रीकथा-भक्तकथा आदि चार विकथाएं, पूर्वाभ्यास के कारण मद्यसेवन तथा श्रोत्र आदि इन्द्रियों के शब्द आदि इंद्रिय-विषय हैं। 2527. स्त्यानर्द्धि निद्रा के ये उदाहरण हैं -1. पुद्गल-मांस 2. मोदक 3. कुम्भकार 4. दांत 5 वटवृक्ष शाखा का भंजक। मैं इन सबका विस्तार कहूंगा। 96. स्त्यानर्द्धि निद्रा महान् दोष से युक्त है। परस्पर प्रतिसेवना में आसक्ति भी दोष-बहुल है। जो व्यक्ति बार-बार इसमें प्रसक्त होता है, उसको अंतिम पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2528. जमे हुए पानी (बर्फ) और घी में कुछ भी दिखाई नहीं देता। इद्ध शब्द का अर्थ है चित्त, जिस निद्रा में चित्त प्रगाढ़ मूर्छा से जड़ीभूत हो जाता है, कुछ ज्ञान (भाव) नहीं रहता, वह स्त्यानर्द्धि निद्रा' है। 2529. गृहस्थ जीवन में कोई साधु मांसभक्षी था। एक बार महिष को काटते देखकर उसे मांस खाने की इच्छा हो गई। वह रात्रि में वहां गया और एक अन्य महिष को मारकर उसका मांस खाने लगा। वह शेष बचा मांस उपाश्रय में ले गया। यह सारा कार्य उसने स्त्यानर्द्धि निद्रा में सम्पन्न किया। 2530. भिक्षा में मोदक भक्त न मिलने पर घर के कपाट तोड़कर वह रात्रि में मोदक खाने लगा। शेष 1. सामान्य महिलाओं के साथ दोष सेवन करने पर मल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2. स्त्यानर्द्धि निद्रा में प्रमत्त साधु दिन में देखे कार्य को रात्रि में उठकर करता है। यह निद्रा प्रथम संहनन वालों के होती है। आचार्य अभयदेवसूरि ने थीणगिद्धी या थीणद्धि के दो संस्कृत रूप किए हैं-१. स्त्यानर्द्धि 2. स्त्यान- . गद्धि / तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार इस निद्रा में विशेष शक्ति का आविर्भाव हो जाता है। इसकी प्राप्ति से जीव निद्रावस्था में ही अनेक रौद्र कर्म तथा बहविध क्रियाएं कर लेता है। गोम्मद्रसार के अनुसार स्त्यानगद्धि के उदय से जीव जागने के बाद भी सोता रहता है। १.तवा पृ.५७२; यत् सन्निधानाद्रौद्रकर्मकरणं बहुकर्मकरणं च भवति सा स्त्यानगृद्धिः। २.गोकर्म 23-25 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६५ /