________________ अनुवाद-जी-९६-१०० 519 मोदकों को पात्र में भरकर उपाश्रय में लेकर आ गया। प्राभातिक आवश्यक में उसने आलोचना की। 2531. एक कुम्भकार प्रव्रजित हुआ। पूर्वाभ्यास के कारण मृत्तिकापिण्ड के छेदन की भांति वह पास में सोए साधुओं के शिरों का छेदन करके एकान्त में रखने लगा। प्रात:काल उसने आलोचना की। 2532. एक साधु को मत्त हाथी ने उछाल दिया। रात्रि में स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय से वह नगर के दरवाजे को तोड़कर हस्तिशाला में गया और वहां उस हाथी के दांत उखाड़कर उन्हें उपाश्रय के बाहर रखकर सो गया। प्रात:काल उसने गुरु के समक्ष इसकी आलोचना की। 2533. एक घुमक्कड़ साधु था। वटवृक्ष की शाखा से उसका शिर टकरा गया। कुछ आचार्य कहते हैं कि वह पूर्वभव में वनहस्ती था। वटवृक्ष की शाखा उखाड़कर उसकी शाखा तोड़कर उसे उपाश्रय में लाकर रख दिया। प्रातः उत्सर्ग-कायोत्सर्ग के समय उसने आलोचना की। 2534. स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदयकाल में उसमें वासुदेव से आधा बल आ जाता है। वह भविष्य में केवली होगा फिर भी अनतिशायी आचार्य उसे लिंग नहीं देते हैं। 2535. स्त्यानर्द्धि निद्रा ज्ञात होते ही आचार्य उसे कहते हैं कि तुम लिंग छोड़ दो क्योंकि तुम्हारे में चारित्र नहीं है। तुम अब देशव्रत या दर्शन-सम्यक्त्व को स्वीकार करो अथवा इच्छानुसार रमणीय वेश धारण करो। 2536. यदि वह लिंग उतारना नहीं चाहता तो संघ के सदस्य मिलकर उसके लिंग का हरण करते हैं। कोई अकेला साधु यह प्रयत्न नहीं करता। इसका कारण है कि उसका किसी से व्यक्तिगत प्रद्वेष न हो। शक्ति न होने पर संघ रात्रि में उसे अकेला सोया हुआ छोड़कर अन्य स्थान पर चला जाए। 2537. निद्राप्रमत्त लिंग पारांचित की व्याख्या सम्पन्न हुई। अब आपस में (गुदा द्वारा) संभोग करने वाले पारांचित को कहूंगा। 2538. सुविहित श्रमणों को परस्पर आपस में मुख और पायु-गुदा सेवन कल्प्य नहीं है। अन्योन्य करण किसे कहते हैं? उसे तुम सुनो। 2539. कुछ पुरुष द्विवेदक होते हैं, वे मुख और पायु-गुदा का सेवन करते हैं। उनका नियमतः लिंग परित्याग कर देना चाहिए। . 1-4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६६-६९ / चूर्णिकार के अनुसार वासुदेव से आधा बल प्राप्त होने वाली बात प्रथम संहनन की अपेक्षा से है। वर्तमान में इस निद्रा में सामान्य व्यक्ति से दुगुना, तिगुना अथवा चार गुना बल प्राप्त हो जाता है। १.निचू 1 पृ.५६। 6. अतिशायी मुनि या तीर्थकर उसे लिंग दे सकते हैं क्योंकि अतिशयज्ञानी यह जानते हैं कि इसको भविष्य में स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय नहीं होगा। बृहत्कल्प की टीका में द्विवेदक का अर्थ स्त्री-पुरुष वेद युक्त अर्थात् नपुंसकवेदी किया है।' १.बृभाटी पृ. 1342 ; द्विवेदकाः स्त्रीपुरुषवेदयुक्ता भवन्ति, नपुंसकवेदिन इत्यर्थः /