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________________ अनुवाद-जी-३५ 417 रजोहरण और साधु लिंग को छोड़ दो।' 1404. गुरु से कहकर लिंग को छोड़कर वह वहां आ गया। उसने अपनी दोनों पुत्रियों के साथ उसकी शादी कर दी और कहा -'यह उत्तम प्रकृति का है अतः इसके साथ यत्नपूर्वक व्यवहार करना है।' 1405. राजगृह में राजा द्वारा एक दिन बिना महिलाओं (नटनियों) के नाटक का आदेश हुआ। एकान्त में वे दोनों नटकन्याएं मदोन्मत्त होकर घर के ऊपरी मंजिल में जाकर सो गईं। 1406. व्याघात होने के कारण नाटक नहीं हुआ। आषाढ़भूति ने घर में प्रवेश करके दोनों पत्नियों को निर्वस्त्र देखा। उन्हें देखकर उसे वैराग्य हो गया। वह आचार्य गुरु के पास जाने के लिए प्रस्थित हुआ। नट ने उसे देख लिया। 1407. नट ने इंगित से उसकी विरक्ति को जान लिया। अपनी दोनों पुत्रियों को उसने कड़े शब्दों में उपालम्भ देते हुए आषाढ़भूति के पास आजीविका की मांग हेतु भेजा। मैं आजीविका जितना धन दूंगा' यह स्वीकृति देकर उसने कुसुमपुर नगर में 'राष्ट्रपाल' नाटक का मंचन किया। 1408. लोगों ने कड़े आदि आभूषण तथा धन का दान किया। नाटक करते हुए उसे बहुत धन की प्राप्ति हुई। नाटक में उसने भरत की ऋद्धि आदि का भी प्रदर्शन किया। 1409. नाटक में इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न भरत को आदर्शगृह में कैवल्य का आलोक प्राप्त हुआ, यह दृश्य दिखाया गया। लोगों ने उसको रोका कि तुम पुनः प्रव्रज्या मत लो। उसने कहा-'क्या राजा भरत वापस लौटा था?' 1410, 1411. आषाढ़भूति ने कहा-"तुम ऐसा मत कहो। यदि मैं लौटता हूं तो विडम्बना होगी।" उसके साथ पांच सौ क्षत्रिय राजकुमार भी प्रव्रजित हो गए। (इस नाटक से पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी अतः) लोगों ने उस नाटक को जला दिया। इस प्रकार का मायापिण्ड साधु के लिए कल्प्य नहीं है लेकिन कारण उपस्थित होने पर ग्लान, क्षपक, अतिथि साधु अथवा स्थविर आदि के लिए मायापिण्ड ग्रहण करना * कल्पनीय है। 1412. मायापिण्ड का कथन कर दिया, अब मैं लोभपिण्ड के बारे में कहूंगा। वह क्रोधपिण्ड आदि में सर्वत्र उपस्थित रहता है अथवा लोभपिण्ड इस प्रकार है१४१३. 'आज मैं अमुक द्रव्य (मोदक आदि) ही ग्रहण करूंगा'-इस संकल्प के कारण वह सहज प्राप्त होने वाले अन्य द्रव्य को ग्रहण नहीं करता, यह लोभपिण्ड है। अथवा स्निग्ध पदार्थ को भद्रकरस युक्त जानकर उसको प्रचुर मात्रा में ग्रहण करना भी लोभपिण्ड है। 1414. लोभपिण्ड का उदाहरण इस प्रकार है। चम्पा नगरी में उत्सव के समय किसी साधु ने यह अभिग्रह ग्रहण किया कि मैं आज सिंहकेशरक मोदक ग्रहण करूंगा। 1415. भिक्षार्थ प्रविष्ट उस मुनि ने अन्य वस्तुओं की प्राप्ति होने पर भी उनका निषेध कर दिया। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं.४६ /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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