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________________ 418 जीतकल्प सभाष्य सिंहकेशरक मोदक की प्राप्ति न होने पर वह भाव से संक्लिष्ट हो गया। 1416. सिंहकेशरकमय चित्त होने से वह असामान्य हो गया इसलिए वह 'धर्मलाभ' के स्थान पर 'सिंहकेशरक' शब्द का उच्चारण करने लगा। सूर्यास्त होने पर भी वह घरों में घूमता रहा। 1417. श्रावक के घर अर्ध रात्रि में उसने 'सिंहकेशरक' शब्द का उच्चारण किया। श्रावक ने सिंहकेशरक मोदकों से पात्र भर दिया। श्रावक ने मुनि से पूछा-'पुरिमार्ध का काल आ गया क्या?' मुनि ने उपयोग लगाया। आकाश में चांद की ज्योत्स्ना देखकर मुनि का मन शान्त हो गया। मुनि ने कहा-'तुमने मुझे समय पर सही प्रेरणा दी।' मुनि ने मोदकों का परिष्ठापन किया। प्रायश्चित्त करते हुए उसे केवलज्ञान हो गया। . 1418. क्रोध आदि के क्रमशः ये उदाहरण कहे गए हैं, अब मैं इनके सम्बन्ध में प्रायश्चित्त-दान के बारे में कहूंगा। 1419. क्रोधपिण्ड और मानपिण्ड ग्रहण करने पर चतुर्लघु, मायापिण्ड ग्रहण करने पर गुरुमास, जिनका तप रूप प्रायश्चित्त क्रमशः आयम्बिल और एकासन होता है। 1420. लोभपिण्ड ग्रहण करने पर चतुर्गुरु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास होता है। संस्तवन, संस्तव, स्तवना और वंदना-ये सब एकार्थक हैं। 1421. संस्तव दो प्रकार का होता है -सम्बन्धी संस्तव और वचन संस्तव। इन दोनों के भी दो-दो भेद जानने चाहिए ---पूर्व सम्बन्धी संस्तव और पश्चात् सम्बन्धी संस्तव, पूर्व वचन संस्तव तथा पश्चाद् वचन संस्तव। 1422. स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध होने से पूर्व सम्बन्धी संस्तव दो प्रकार का होता है। इसी प्रकार पश्चात् सम्बन्धी संस्तव के भी स्त्री और पुरुष दो भेद हैं। अब मैं इनके प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 1423. स्त्री सम्बन्धी संस्तव होने पर चतुर्लघु तथा पुरुष सम्बन्धी संस्तव होने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त क्रमशः उपवास और आयम्बिल होता है। 1424. स्त्री और पुरुष-इन दो से सम्बन्धित होने के कारण पूर्व वचन संस्तव के दो भेद होते हैं। इसी प्रकार पश्चाद् वचन संस्तव के भी दो भेद होते हैं। अब मैं इनके प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 1425. स्त्री सम्बन्धी वचन संस्तव करके आहार लेने पर गुरुमास प्रायश्चित्त, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त एकासन होता है। पुरुष सम्बन्धी वचन संस्तव करके आहार ग्रहण करने पर लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध प्राप्त होता है। 1426. पूर्व सम्बन्धी संस्तव में माता-पिता आदि को जानना चाहिए। पश्चात् सम्बन्धी संस्तव में सास और श्वसर का सम्बन्ध होता है। 1427. भिक्षार्थ गया हुआ मुनि अपनी वय तथा गृहिणी की वय जानकर तदनुरूप संबंध स्थापित करते हुए कहता है कि मेरी माता ऐसी ही थी अथवा मेरी बहिन, बेटी या पौत्री भी ऐसी ही थी। 1428. भिक्षार्थ प्रविष्ट मुनि स्त्री को देखकर अधृतिपूर्वक अश्रुविमोचन करते हुए कहता है-'मेरी माता
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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