________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 109 सामान्यतया सौ हाथ की दूरी तक बाहर जाने पर समिति-गुप्ति की विशुद्धि के लिए आलोचना आवश्यक है। इसी प्रकार श्लेष्म, प्रस्रवण आदि के परिष्ठापन में प्रमत्त साधु की आलोचना से शुद्धि होती है। अप्रमत्त और उपयुक्त को आलोचना की आवश्यकता नहीं होती। सामान्यतया आलोचना करने के निम्न स्थान हो सकते हैं * कुल, गण या संघ के कार्य हेतु बाहर जाने पर। * प्रातिहारिक संस्तारक आदि लौटाने हेतु जाने पर। * आहार या औषध आदि लाने हेतु जाने पर। * उच्चारप्रस्रवण के परिष्ठापन हेतु या स्वाध्याय-भूमि में जाने पर। * क्षेत्र-प्रतिलेखना हेतु जाने पर। * शैक्ष का अभिनिष्क्रमण अथवा कोई आचार्य के संलेखना करने से वहां जाने पर। * बहुश्रुत तथा अपूर्व संविग्न आचार्य को वंदना करने या संशय को दूर करने हेतु जाने पर। * श्रावक अथवा अपने ज्ञातिजनों की श्रद्धा बढ़ाने हेतु जाने पर। * अवसन्न साधर्मिक का संयम में उत्साह बढ़ाने हेतु जाने पर। चूर्णिकार जिनदासगणी के अनुसार परस्पर अध्ययन-अध्यापन, परिवर्तना, केशलोच, वस्त्रों का आदान-प्रदान-इन कार्यों की गुरु के समक्ष आलोचना मात्र से शुद्धि हो जाती है। भिक्षा, विहार आदि स्थानों को गुरु की आज्ञा के बिना करने पर अथवा आलोचना न करने से गुरु का अविनय तथा अशुद्ध परिभोग होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार निम्न स्थानों में आलोचना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है• * आचार्य से पूछे बिना आतापना लेने पर। * दूसरे साधुओं की अनुपस्थिति में उनके उपकरण ग्रहण करने पर। * प्रमाद से आचार्य की आज्ञा का उल्लंघन करने पर। * आचार्य से पूछे बिना जाकर आने पर। * परसंघ से पूछे बिना अपने संघ में आने पर। * धर्मकथा आदि के कारण व्रत, नियम आदि का विस्मरण होने पर। १.जीसू 7, जीभा 759,760 / २.जीभा 762 / 3. जीभा 750-57, प्रसाटी प. 218 / ४.आवचू 2 पृ. 246 ; परोप्परस्स वायण-परियट्टण-वत्थ दाणादिए अणालोतिए गुरूणं अविणओ त्ति आलोयणारिहं। 5. व्यभा 57; भिक्ख-वियार-विहारे, अन्नेसु य एवमादिकज्जेसु। अविगडियम्मि अविणओ, होज्ज असुद्धे व परिभोगो।। 6. काअटी पृ. 343 /