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________________ 110 जीतकल्प सभाष्य भाष्यकार के अनुसार प्रतिक्रमण प्रायश्चित में आलोचना नहीं की जाती लेकिन विवेक और व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त में आलोचना वैकल्पिक है।' 2. प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण आत्मा के मल को धोने के लिए साबुन के समान है। इसका अर्थ है-पीछे लौटना। अतीत के पाप की विशुद्धि के लिए मानसिक रूप से अतिचारों को याद करके उससे निवृत्त होना प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिक्रमण शब्द की दो रूपों में व्याख्या की है• शुभ योग से अशुभ योग में जाते हुए पुनः शुभ योग में विपरीत चलना प्रतिक्रमण है। अर्थात् औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौटना प्रतिक्रमण है। * प्रतिक्षण शुभ योगों में क्रमण–वर्तन करना प्रतिक्रमण है।' निश्चय नय के अनुसार जब तक आत्मा स्वयं प्रतिक्रमण नहीं बन जाती, तब तक वह द्रव्य प्रतिक्रमण होता है। नियमसार के अनुसार जब साधक वचन-रचना को छोड़कर, राग आदि भावों का निवारण करके अपनी आत्मा का ध्यान करता है, विराधना को छोड़कर आराधना में प्रवृत्त होकर प्रतिक्रमणमय हो जाता है, तब प्रतिक्रमण होता है। आचार्य जिनदास के अनुसार जब आत्मा में तीव्र संवेग की प्राप्ति होती है, तब व्यक्ति अपने अतीतकालीन पाप की स्मृति करके आत्मनिंदा और गर्दा करता है, पुनः वह अनाचरणीय को न करने का संकल्प करता है, वही वास्तविक प्रतिक्रमण है। धवला में भी इसी मत की पुष्टि है। प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त में गुरु के समक्ष आलोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती, संवेगपूर्वक " मिथ्या दुष्कृत करने मात्र से पाप की शुद्धि हो जाती है। उदाहरण स्वरूप किसी साधु के श्लेष्म आदि बाहर निकलता है, उससे हिंसा आदि दोष लगता है लेकिन उसमें तप रूप प्रायश्चित्त नहीं मिलता, प्रतिक्रमण करने से शुद्धि हो जाती है। १.व्यभा 55; बितिए णत्थि वियडणा, वा उ विवेगे तधा आराहणाइ वट्टइ, मोतूण विराहणं विसेसेण। विउस्सग्गे। सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा।। 2. विभा 3572; पडिक्कमामि त्ति भूयसावज्जओ निवत्तामि। 6. अनुद्वाचू पृ. 18 / 3. आवहाटी 2 पृ.४१ ; शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य ७.षट्ध पु.१३/५,४,२६, पृ.६०;गुरुणमालोचणाए विणा शुभेष्वेव प्रतीपं प्रतिकूलं वा क्रमणं प्रतिक्रमणम्। ससंवेग-निव्वेयस्स पुणो ण करेमि त्ति जमवराहादो णियत्तणं 4. आवहाटी 2 पृ. 41 प्रति प्रति क्रमणं वा प्रतिक्रमणं, पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं। शुभयोगेषु प्रति प्रति वर्तनमित्यर्थः। 8. तवा 9/22 पृ.६२१; मिथ्यादुष्कृताभिधानाधभिव्यक्त५. निसा 83, 84; प्रतिक्रिया प्रतिक्रमणम्। मोत्तूण वयणरयणं, रागादि भाववारणं किच्चा। ९.जीभा 719,720 / अप्पाणं जो झायदि, तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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