________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 111 चूर्णिकार के अनुसार प्रतिक्रमण का तात्पर्य है- दोष का पुनः सेवन न करने का संकल्प तथा उसके योग्य प्रायश्चित्त को स्वीकार करके उसका वहन करना। प्रतिक्रमण करके जो पुनः उन्हीं पापों का सेवन करता है, उसका प्रतिक्रमण सार्थक नहीं होता, वह प्रत्यक्ष मृषावादी और मायावी होता है। नियुक्तिकार के अनुसार किसी भी प्रकार का अकार्य हो जाने पर उसका प्रतिक्रमण करके हल्का हो जाना चाहिए, उसका हृदय में भार नहीं ढोना चाहिए।' प्रतिक्रमण का अर्थ यहां केवल अशुभ योगमय पापकर्म से निवृत्ति है, न कि शुभ योग या शुभ ध्यान से निवृत्ति। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर दिगम्बर-साहित्य में अप्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। अप्रतिक्रमण दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त / ज्ञानी का शुभ भाव तथा ज्ञान, दर्शन से पीछे न लौटना प्रशस्त अप्रतिक्रमण तथा अज्ञानी का लोभ, विषय-कषाय से पीछे न लौटना अप्रशस्त अप्रतिक्रमण है। यहां प्रशस्त प्रतिक्रमणं का प्रसंग है। प्रतिक्रमण के एकार्थक ___प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्द मिलते हैं - प्रतिक्रमण-प्रमादवश संयम से बाहर चले जाने पर पुनः संयम में लौटना। प्रतिचरण-अकार्य का परिहार और कार्य में प्रवृत्ति। परिहरण-दोषों का परिहरण। वारण-अपने आपको दोषों से दूर रखना। निवृत्ति-अशुभ भावों से निवर्तन। निंदा-आत्म-संताप। गर्दा-गुरु के समक्ष आलोचना करना। शोधि -दोषों का उच्छेद करना। यद्यपि नियुक्तिकार ने इन आठों शब्दों को प्रतिक्रमण का पर्याय माना है लेकिन इन आठों शब्दों 1. आव 25.48 पडिक्कमामि णाम अपुणक्करणताए ' अन्भुमि, अहारिहं पायच्छित्तं पडिवज्जामि। 2. आवहाटी 1 पृ. 323 / 3. ओनि 800; जंकिंचि कयमकज्ज, न हु तं लब्भा पुणो समायरिउं। तस्स पडिक्कमियव्वं, न हु तं हियएण वोढव्वं / / 4. समयसार ता वृ 307/389/17 / 4.आवनि 824 // 6. आवचू 2 पृ.५२ स्वस्थानाद्यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते।। 7. चर्णि में 'शोधि' के स्थान पर 'विशोधि' शब्द का प्रयोग मिलता है। (आवचू 2 पृ.५३)