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________________ 112 जीतकल्प सभाष्य को प्रतिक्रमण का पर्याय न मानकर उसकी क्रमिक अवस्थाएं कहा जा सकता है। ये एकार्थक न होकर प्रतिक्रमण के विविध भावों की अवस्थाएं हैं, इसका साक्षी है तिलोयपण्णत्ति, वहां प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि-ये नाम मिलते हैं लेकिन वहां इनको एकार्थक न मानकर आत्मा के विविध भावों के रूप में स्वीकार किया है। आवश्यक नियुक्ति में इन आठों के निक्षेप तथा इनसे सम्बन्धित एक-एक कथा का वर्णन प्राप्त होता है। यहां केवल प्रतिक्रमण की कथा प्रस्तुत की जा रही है-एक राजा अपने नगर के बाहर प्रासाद का निर्माण करवाना चाहता था। उसने शुभ तिथि और नक्षत्र में प्रासाद-निर्माण का कार्य प्रारम्भ करवा दिया। उसने रक्षक नियुक्त करते हुए उससे कहा-'जो व्यक्ति इसमें प्रवेश करे, उसे मृत्युदंड देना है। जो उन्हीं पैरों वापस लौट जाए, उसे नहीं मारना है।' एक बार दो ग्रामीण व्यक्ति उस क्षेत्र में घुस गए। आरक्षकों के पकड़ने पर एक ने उदंडतापूर्वक कहा- भीतर आ गए तो क्या हुआ?' दूसरा अपनी गलती स्वीकार करता हुआ उन्हीं पैरों वापस लौट गया। उसके प्रतिक्रमण ने उसे बचा लिया। शेष सात कथाओं हेतु देखें आवहाटी 2 पृ. 43-48 प्रतिक्रमण के निक्षेप आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण के छह निक्षेप मिलते हैं -नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। कुछ आचार्य प्रतिक्रमण के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार निक्षेप ही करते हैं। इनमें नाम, स्थापना प्रतिक्रमण स्पष्ट हैं। भाव से अनुपयुक्त होकर जो केवल द्रव्य प्रतिक्रमण करता है, उसका प्रतिक्रमण करने का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।' द्रव्य प्रतिक्रमण में कुम्भकार का उदाहरण प्रसिद्ध है। एक कुम्भकार के पास कुछ साधु ठहरे हुए थे। एक छोटा शिष्य पत्थर के टुकड़ों से घड़ों को खण्डित कर रहा था। कुम्भकार ने कहा-'तुम मेरे बर्तनों को खण्डित क्यों कर रहे हो? इस बात को सुनकर क्षुल्लक शिष्य ने 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण किया लेकिन थोड़ी देर के बाद वह पुनः मिट्टी के बर्तनों को खण्डित करने लगा। तब कुम्भकार ने बाल साधु को शठ जानकर जोर से कान मरोड़ दिया और 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण किया। इस प्रकार 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण करके पुनः उसी पाप का सेवन करना द्रव्य प्रतिक्रमण है। क्षेत्र प्रतिक्रमण का अर्थ है-पानी, कीचड़ तथा त्रस-स्थावर जीवों से युक्त क्षेत्र में गमन का वर्जन 1. देखें आवनि 825-32 / 2. आवनि 833 हाटी 2 पृ.४३ / 3. मूला 626 / 4. आवहाटी 1 पृ. 323 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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