SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 113 करना अथवा जिस क्षेत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय की हानि होती हो, उसका परिहार करना। काल प्रतिक्रमण दो प्रकार का होता है-ध्रुव और अध्रुव / प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ध्रुव प्रतिक्रमण तथा मध्यवर्ती बावीस तीर्थंकरों के तीर्थ में काल की दृष्टि से अध्रुव प्रतिक्रमण होता है। भाव प्रतिक्रमण भी दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त / मिथ्यात्व आदि से सम्यक्त्व में लौटना प्रशस्त प्रतिक्रमण तथा सम्यक्त्व आदि से मिथ्यात्व आदि में लौटना अप्रशस्त प्रतिक्रमण है। आलोचना, निंदा, गर्दा के द्वारा जो प्रतिक्रमण करने के लिए उद्यत होता है, उसके भाव प्रतिक्रमण होता है, शेष के द्रव्य प्रतिक्रमण होता है। जब जीव प्रतिक्रमण के साथ तादात्म्य भाव को प्राप्त हो जाता है, द्वैतभाव नहीं रहता स्वयं प्रतिक्रमण मय बन जाता है, तब भाव प्रतिक्रमण होता है। आचार्य कुंदकुंद ने इसी तथ्य को प्रकट किया है। अनाचार को छोड़कर आचार में स्थिर होना, उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में स्थिर होना, शल्य को छोड़कर निःशल्य बन जाना, अगुप्ति को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त होना, आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्लध्यानमय बन जाना, मिथ्यादर्शन आदि को सम्पूर्ण रूप से छोड़कर सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र से स्वयं को भावित करना भाव प्रतिक्रमण है। भाव प्रतिक्रमण को स्पष्ट करने के लिए नियुक्तिकार ने नागदत्त और चार कषाय रूप सर्प के सुन्दर रूपक का उल्लेख किया है।' भाव प्रतिक्रमण में मृगावती की कथा प्रसिद्ध है। भगवान् महावीर के समवसरण में चांद और सूरज विमान सहित उपस्थित थे अतः मृगावती को रात्रि होने की अवगति नहीं मिली। शेष साध्वियां भगवान् को वंदना करके लौट गईं। मृगावती कुछ देरी से आर्या चंदना के पास आलोचना हेतु पहुंची। आर्या चंदना ने उसे कड़ा उपालम्भ दिया। साध्वी मृगावती 'मिच्छामि दुक्कडं' कहती हुई आर्या चंदना के चरणों में झुक गई / तीव्र संवेग से प्रतिक्रमण करते हुए आर्या मृगावती को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय एक सर्प आर्या चंदना के संस्तारक के पास से गुजरने लगा। चंदना का हाथ संस्तारक से नीचे लटक रहा था। मृगावती ने हाथ को ऊपर कर दिया। आर्या चंदना ने पूछा- क्या तुम अभी तक जग रही हो?' मृगावती ने कहा-'यह सर्प आपको डस न ले इसलिए मैंने आपका हाथ संस्तारक से ऊपर कर दिया है। आर्या चंदना को सांप दिखाई नहीं दिया तो उसने पूछा- क्या तुम्हें अतिशायी ज्ञान उत्पन्न हुआ है?' मृगावती ने कहा-'आपकी कृपा से केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।' तब आर्या चंदना मृगावती के चरणों में झुककर बोली-'मिच्छामि दुक्कडं' मैंने केवली की आशातना कर दी। यहां दोनों का भावप्रतिक्रमण है।' 1. मूला 625 2. निसा 85-91 / आलोचण-णिंदण-गरहणाहिं अब्भुट्टिओ य करणाए। 3. द्र. आवनि 844-62 ' तं भावपडिक्कमणं, सेसं पुण दव्वदो भणियं।। 4. आवहाटी 1 पृ. 323, 324 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy