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________________ 114 जीतकल्प.सभाष्य प्रतिक्रमण के प्रकार आचार्यों ने भिन्न-भिन्न विवक्षा से प्रतिक्रमण के भेदों की अनेक रूपों में व्याख्या की है। काल के आधार पर प्रतिक्रमण के आठ भेद मिलते हैं - 1. दैवसिक प्रतिक्रमण 5. पाक्षिक प्रतिक्रमण 2. रात्रिक प्रतिक्रमण 6. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण 3. इत्वरिक प्रतिक्रमण 7. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण 8. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में साधु ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सम्बन्धित अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि दैवसिक प्रतिक्रमण में साधु उन अंतिचारों का भी उच्चारण करता है, जिनका आसेवन दिन में संभव नहीं, इसी प्रकार रात्रिक प्रतिक्रमण में भी ऐसे अतिचार उच्चरित होते हैं, जो रात में संभव नहीं, फिर उनका उच्चारण क्यों किया जाता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि इसके मुख्य तीन हेतु हैं-१. संवेग-वृद्धि 2. अप्रमाद की साधना 3. निंदा-गर्दा।' इत्वरिक प्रतिक्रमण को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म तथा नाक का मल आदि परिष्ठापित करके किया जाने वाला तथा ज्ञात-अज्ञात अवस्था में, सहसा गलती होने पर किया जाने वाला इत्वरिक प्रतिक्रमण कहलाता है। पांच महाव्रत, रात्रिभोजन-विरति, चातुर्याम, भक्तपरिज्ञा तथा इंगिनीमरण-इनसे सम्बन्धित प्रतिक्रमण यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। ___ तर्क उपस्थित होता है कि जब सुबह और शाम प्रतिक्रमण करना साधु की नित्य दिनचर्या का अंग है तो फिर पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण की क्या आवश्यकता है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि लोग अपने-अपने घरों को प्रतिदिन सुबह और शाम साफ करते हैं फिर भी पक्ष, मास आदि बीतने पर अथवा दीपावली आदि विशिष्ट पर्वो के अवसर पर घरों की लिपाई-पुताई आदि के द्वारा विशेष रूप से सफाई होती है, इसी प्रकार प्रतिदिन सुबह और शाम प्रतिक्रमण करने पर भी यदि कुछ अतिचार दोष शेष रह जाते हैं तो उनकी विशेष विशुद्धि के लिए पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण किया जाता है। 1. आवनि 838 / २.उ 26/39-41 // 3. आवचू 2 पृ.७५। 4. आवनि 840 / 5. आवनि 839 / 6. आवचू 2 पृ.६४ ; जथा लोगे गेहं दिवसे-दिवसे पमज्जि ज्जंतं पि पक्षादिसु अब्भधितं अवलेवणपमज्जणादीहिं सज्जिज्जति, एवमिहावि ववसोहणविसेसे कीरति त्ति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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