________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 115 अपराध-स्थानों के आधार पर स्थानांग सूत्र में प्रतिक्रमण के छह भेद भी मिलते हैं१. उच्चार प्रतिक्रमण -मल-त्याग करने के बाद वापस आकर ईर्यापथिकी सूत्र द्वारा प्रतिक्रमण करना। 2. प्रस्रवण प्रतिक्रमण -मूत्र त्याग करने के बाद ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। 3. इत्वरिक प्रतिक्रमण -दैवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना। 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण-हिंसा आदि से सर्वथा निवृत्त होना तथा आजीवन अनशन करना। 5. यत्किंचिद्मिथ्यादृष्कृत प्रतिक्रमण-साधारण अयतना या असावधानी होने पर उसकी विशुद्धि हेतु 'मिच्छामि दुक्कडं' अर्थात् मिथ्याकार प्रतिक्रमण करना। 6. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण –सोकर उठने के पश्चात् ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। दिगम्बर परम्परा में कुछ अंतर के साथ प्रतिक्रमण के सात भेद मिलते हैं१. दैवसिक प्रतिक्रमण-दिवस सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 2. रात्रिक प्रतिक्रमण –रात्रि सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 3. ऐपिथिक प्रतिक्रमण -चलते समय लगने वाले प्रमाद से निवृत्त होना। 4. पाक्षिक प्रतिक्रमण-पक्ष सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 5. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण–चातुर्मास सम्बन्धी अतिचारों से निवृत्त होना। 6. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण-एक साल में लगने वाले अतिचारों से निवृत्ति। 7. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण -जीवन के अंत में आजीवन अनशन के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण। . ...मूलाचार में मरण-समाधि की आराधना के समय होने वाले तीन प्रतिक्रमणों का निर्देश मिलता 1. सर्वातिचार प्रतिक्रमण-दीक्षा ग्रहण से लेकर तपश्चरण के काल तक जितने दोष लगे हों, उनकी शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करना। 2. त्रिविध प्रतिक्रमण-जल के अतिरिक्त अशन, खाद्य, स्वाद्य आदि तीनों प्रकार के आहार का त्याग - करना। 3. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण-जीवन पर्यन्त जल पीने से निवृत्त होना। यह प्रतिक्रमण उत्तम अर्थ-मोक्ष के लिए होता है। मूलाचार के टीकाकार ने उस समय होने वाले अन्य प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख किया है ११.स्था 6/125 / 12. मूला 615 / ३.निसा 93 / 4. मूला 120 पढमं सव्वदिचारं, बिदियं तिविहं भवे पडिक्कमणं। पाणस्स परिच्चयणं, जावज्जीवायमुत्तमटुं च।।