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________________ 108 जीतकल्प सभाष्य 5. शोधि-जल से मलिन वस्त्र की भांति आलोचना से मलिन चारित्र की विशोधि होती है। 6. दुष्करकरण-प्रबल वैराग्य और उत्साह से ही व्यक्ति अपने दोषों की आलोचना कर सकता है अतः दोषों की प्रतिसेवना उतनी दुष्कर नहीं है, जितनी कि उसकी गुरु के समक्ष आलोचना करना। 7. विनय- अहंकार का नाश हुए बिना व्यक्ति आलोचना नहीं कर सकता अतः आलोचना करने वाले व्यक्ति में सहज ही विनय का गुण प्रकट हो जाता है। 8. निःशल्यता-आंतरिक शल्य भीतर ही भीतर व्यक्ति के आत्मबल को कमजोर कर देता है। आलोचना से माया आदि शल्यों का उद्धरण हो जाता है। ___ आचार्य अकलंक के अनुसार आलोचना के बिना बड़ी तपस्या भी उसी भांति इष्ट फल नहीं देती, जैसे विरेचन से शरीर के मल की शुद्धि किए बिना खाई गई औषधि। विशुद्ध हृदय से आलोचना के साथ किया गया प्रायश्चित्त साफ दर्पण में प्रतिबिम्बित रूप की भांति निखर उठता है। शुद्ध हृदय से आलोचना करने पर भी यदि आलोचक प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यक् वहन नहीं करता है तो उसका शोधन नहीं होता। वह व्यक्ति अपने आय और व्यय का हिसाब नहीं रखने वाले कर्जदार की भांति सदैव दुःखी रहता है। आलोचना के अपराध-स्थान दैनिक जीवन में अवश्य करणीय कार्यों को निरतिचार रूप से उपयुक्त होकर करने वाले छद्मस्थ मुनि की आलोचना मात्र से शुद्धि हो जाती है। प्रश्न हो सकता है कि जब मुनि करणीय योग में निरतिचार रूप से उपयुक्त है तो फिर आलोचना की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि सूक्ष्म आस्रव क्रिया अथवा सूक्ष्म प्रमाद से लगने वाले कर्म और अतिचार को छद्मस्थ नहीं जान सकता अत: उसकी शुद्धि गुरु के समक्ष आलोचना करने मात्र से हो जाती है अतः गुरु के समक्ष ज्ञात या अज्ञात तीनों योगों से सम्बन्धित क्रियाओं की आलोचना करनी चाहिए। सातिचार मुनि को ऊपर के प्रायश्चित्तों की प्राप्ति होती है। केवलज्ञानी कृत्कृत्य होते हैं अतः उनके आलोचना प्रायश्चित्त नहीं होता। 1. तवा 9/22, पृ.६२१ ; महदपि तपस्कर्म अनालोचनपूर्वकम् 3. व्यभा 56 / नाभिप्रेतफलप्रदम्, अविरिक्तकायगतौषधवत् / ४.जीभा 736-38 / 2. तवा 9/22 पृ. 621; कृतालोचनचित्तगतं प्रायश्चित्तं 5. प्रसाटी प. 218 : सातिचारस्य तपरितनप्रायश्चित्तसम्भवात। परिमृष्टदर्पणतलरूपवत् परिभ्राजते।.....परपरिभवादि- ६.प्रसाटी प. 218; केवलज्ञानिनश्च कृतकृत्यत्वेनालोचनाया गणनया निवेद्यातिचारं यदि न शोधयेद् अपरीक्षिताय- अयोगात्। व्ययाधमर्णवदवसीदति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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