________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 107 अविच्छिन्न रहती है। सामर्थ्य या विद्यातिशय होने पर भी जो साधु उसका उपयोग नहीं करता तो वह विराधक होता है। आलोचना के लाभ ___ जैन आगमों में अपनी स्खलना को गुरु के समक्ष स्पष्ट रूप से कहने का निर्देश स्थान-स्थान पर मिलता है। व्यक्ति जब मार्गदर्शक के समक्ष अपने अपराध स्वीकार कर लेता है तो वह हल्का हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में आलोचना के लाभ प्रकट करते हुए महावीर कहते हैं कि आलोचना से आंतरिक शल्यों की चिकित्सा होती है, सरल मनोभाव की विशेष उपलब्धि होती है, तीव्रतर विकारों से दूर रहने की क्षमता का विकास होता है तथा पूर्व संचित विकार के संस्कारों का विलय होता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार आलोचना करने से निम्न गुण प्रकट होते हैं * मिथ्यात्व आदि पांच आश्रवों को दूर करके पंचविध आचार की सम्यक् आराधना। * माया का विनाश तथा विनयगुण का विस्तार। * चारित्र के नियमों में निरतिचार प्रवृत्ति। * अतिचार रूपी पंक से पंकिल आत्मा की विशोधि। * ऋजु भाव-संयम का विकास। * आर्जव और मार्दव का विकास। * अतिचार की गुरुता समाप्त होने से लाघव का अनुभव / * मैं शल्यमुक्त हो गया हूं, इस प्रकार की तुष्टि। ..अतिचार के समाप्त होने से प्रसन्नता की वृद्धि / ' ___ व्यवहारभाष्य में कुछ अंतर के साथ आलोचना करने के निम्न लाभों का उल्लेख मिलता है१. लाघवता-भारहीन व्यक्ति की भांति आलोचना करने वाला हल्केपन की अनुभूति करता है। अपराधबोध का भार उसके मस्तिष्क से हट जाता है। 2. प्रसन्नता-अतिचार जन्य आंतरिक ताप का शमन होने से अतिरिक्त मानसिक प्रसन्नता की अनुभूति होती है। 3. आत्मपरनिवृत्ति-आलोचना करने से स्वयं के दोषों की निवृत्ति होती है तथा उसे देखकर दूसरों के दोषों . की भी निवृत्ति हो जाती है। 4. आर्जव-अपने दोषों को प्रकट करने से स्वयं की ऋजुता का विकास होता है। १.जीभा 2386-91 / 4. व्यभा 317 ; 2.3 29/6 / लहयल्हादीजणणं, अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही। ३.जीभा 246-51, पंकभा 1310 / दुक्करकरणं विणओ, निस्सल्लत्तं व सोधिगुणा।।