________________ 106 जीतकल्प सभाष्य आराधक और विराधक।• परलोक का आराधक और विराधक।• स्वीकृत व्रत की निरतिचार अनुपालना करने वाला आराधक, न करने वाला विराधक होता है। ___अकृत्यस्थान की आलोचना न होने पर विशुद्धि कैसे हो सकती है? इसका समाधान ‘क्रियमाणकृत' के सिद्धांत द्वारा किया गया है। क्रिया-काल और निष्ठा-काल में अभेद होता है, प्रतिक्षण कार्य की निष्पत्ति होती है, इस सिद्धांत के अनुसार छिद्यमान को छिन्न, प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और दह्यमान को दग्ध . कहा जाता है, वैसे ही आराधना में प्रवृत्त को आराधक कहा जा सकता है।' दसवें शतक में पुनः आराधक और विराधक के प्रसंग में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है कि यदि कोई भिक्षु अकृत्यस्थान का सेवन करके यह सोचता है कि मैं अंतिम समय में आलोचना करके प्रायश्चित्त प्राप्त करूंगा लेकिन किसी कारणवश वह आलोचना नहीं करता तो वह विराधक है। यदि संकल्प करके अंतिम समय में आलोचना कर लेता है तो वह आराधक होता है। नियुक्तिकार कहते हैं कि अल्प भावशल्य की भी यदि गुरु के पास आलोचना नहीं की जाती तो श्रुत से समृद्ध होने पर भी वह साधु आराधक नहीं होता। बड़े से बड़े शल्य की भी यदि गुरु के समक्ष आलोचना कर ली जाए तो वह आराधक हो जाता है। पर साक्षी के बिना शल्य की शुद्धि संभव नहीं है। भाष्यकार कहते हैं कि अपराध या अतिचार होते ही साधु को अश्व के समान कहीं भी प्रतिबद्ध हुए बिना तत्काल गुरु के पास आलोचना करनी चाहिए। यदि साधु का किसी के साथ कलह हो जाए, उस समय पश्चात्ताप करता हुआ उपशान्त हो जाता है तथा क्षमायाचना कर लेता है तो वह आराधक होता है। अन्यथा विराधक होता है। ___इसी संदर्भ में एक प्रश्न उठता है कि यदि किसी कारण से मुनि को प्रतिसेवना के अतिचार विस्मृत हो जाएं तो बिना सम्यक् आलोचना के वह निःशल्य कैसे बनेगा? इस प्रश्न का समाधान देते हुए आचार्य कहते हैं कि यदि आलोचक माया और गौरव से रहित होकर यह सोचता है कि मैंने जो-जो अपराध किए हैं, उन्हें जिनेश्वर भगवान् जानते हैं, मैं सर्वात्मना उनकी आलोचना के लिए उपस्थित हूं तो अतिचार विस्मृत होने पर भी भाव-विशोधि के कारण वह मुनि आराधक होता है। संघीय कार्य उपस्थित होने पर अथवा संघ के ऊपर संकट की स्थिति आने पर पंचेन्द्रिय का वध होने पर अथवा स्वयं के जीवन का नाश होने पर भी साधु आराधक होता है क्योंकि इसमें आलम्बन विशुद्ध है, ऐसा करने से तीर्थ की परम्परा 1. भ. 8/255 टी प 376 ; क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदेन अप्पं पि भावसल्लं, जे णालोयंति गुरुसगासम्मि। प्रतिक्षणं कार्यस्य निष्पत्तेः छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते एवम- धंतं पि सुयसमिद्धा ,न हु ते आराहगा होति / / सावालोचनापरिणतौ सत्यामाराधनाप्रवृत्त आराधक एवेति। 4. व्यभा 231; अहगं च सावराधी, आसो विव पत्थितो 2. भ 10/19-21 / गुरुसगासं। 3. मवि 225, 226; 5. कसू 1/34 / सुबहु पि भावसल्लं, आलोएऊण गुरुसगासम्मि। 6. जीभा 422 / निस्सल्लो संथारं, उवेइ आराहओ होइ / /