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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 105 की शोधि कर लेंगे, वे काल को नहीं जानते हुए सशल्य मरण प्राप्त करके विराधक हो जाते हैं। नियुक्तिकार के अनुसार आलोचना करके आराधनापूर्वक मरण प्राप्त करने वाला उत्कृष्ट तीन भव में निर्वाण प्राप्त कर लेता है। भगवती सूत्र के अनुसार वह नियमित सात-आठ भवों में मोक्ष प्राप्त करता है। यदि साधु बिना आलोचना किए मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो उसके चारित्र का नाश हो जाता है और वह अनंत संसार में परिभ्रमण करता रहता है। भगवती आराधना के अनुसार आलोचना करके ज्ञान, दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करने वाला उसी भव में मुक्त हो जाता है। मध्यम आराधना करने वाला तीसरे भव में तथा जघन्य आराधना करने वाला सातवें भव में मुक्त होता है। निशीथभाष्य के अनुसार कोई मुनि आपत्ति के कारण मद्य, गीत आदि व्यसन में आसक्त होता है अथवा शारीरिक दौर्बल्य के कारण यथोक्त आचार का पालन करने में असमर्थ होता है, उसका चरणकरण अशुद्ध होता है फिर भी यदि वह अपने अशुद्ध आचरण की गुरु के समक्ष गर्दा करता है और शुद्ध मार्ग की प्ररूपणा करता है तो वह आराधक हो सकता है। इसी प्रकार संयम यात्रा में अवसन्न होने पर भी यदि विशुद्ध आचार की वृद्धि करता है, शुद्ध चारित्रमार्ग की प्ररूपणा करता है तो वह कर्मबंधन को शिथिल करके सुलभबोधि और आराधक होता है।' / कभी-कभी बिना आलोचना किए भी साधु आराधक होता है। भगवती सूत्र के आठवें शतक में आलोचना की अभिमुखता के आठ विकल्प बताए गए हैं। उसका फलितार्थ यही है कि कोई साधु अकृत्य स्थान का सेवन करके इस चिन्तन से गुरु के सम्मुख प्रस्थित होता है कि मुझे आलोचना करके प्रायश्चित्त स्वीकार करना है। बीच में उसके मुख का लकवा हो जाए या किसी रोग के कारण आचार्य बोल नहीं पाएं अथवा आचार्य कालगत हो जाएं तो आलोचना न करने पर भी वह साधु आराधक होता है क्योंकि वह मानसिक रूप से आलोचना करने के लिए कृतसंकल्प और समुत्सुक है तथा आलोचना करने के भाव में परिणत होने के कारण उसकी प्रवृत्ति निश्छल और सरल है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस आलापक पर भाष्य लिखते हुए कहा है --आराधक और विराधक का प्रयोग अनेक संदर्भो में होता है -* ज्ञान का आराधक और विराधक। * दर्शन का आराधक और विराधक।• चारित्र का आराधक और विराधक। * इहलोक का 4. व्यभा 921; ससल्लस्सा जीवितघाते चरणघातो। १.भआ 543; कल्ले परे व परदो, काहं दंसणणाणचरित्तसोधि त्ति। इय संकप्पमदीया, गयं पि कालं ण याणंति / / 2. ओनि 808 आराहणाइ जुत्तो, सम्म काऊण सुविहिओ कालं / उक्कोसं तिन्नि भवे, गंतूण लभेज्ज निव्वाणं / / ३.भ.८/४६६, पंचा 7/50 / 6. निभा 5435 च पृ.७०। 7. निभा 5436 / 8. आवनि 834; आलोइयम्मि आराधणा, अणालोइए भयणा। 9. भ 8/251-55, जीभा 128, 233 / 10. भभा 3 पृ. 99, 100 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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