________________ 104 जीतकल्प.सभाष्य कहते हैं कि गुरु के समक्ष आलोचना किए बिना भीतरी शल्य की विशोधि नहीं होती। जिस प्रकार शरीर में बढ़ते हुए फोड़े को यदि चिकित्सक को न बताया जाए तो वह मृत्यु का कारण भी बन सकता है, वैसे ही अपराधरूपी व्रण की चिकित्सा भी आचार्य के समक्ष ही करनी चाहिए अन्यथा भाव शल्य का उद्धरण नहीं हो सकता। भाष्यकार के अनुसार छत्तीस गुणों से युक्त, आगम आदि पांच व्यवहार के प्रयोगों में कुशल आचार्य को भी अन्य आचार्य के पास विशोधि करनी चाहिए। जैसे कुशल वैद्य भी अपनी व्याधि को किसी दूसरे वैद्य को बताता है, वह उसकी व्याधि सुनकर उसकी चिकित्सा प्रारम्भ करता है, वैसे ही निपुण प्रायश्चित्तवेत्ता को भी अन्य आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। जंघाबल क्षीण होने पर जब आचार्य चलने-फिरने में अशक्त हो जाए तो उसे धारणा व्यवहार से अन्य आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। टीकाकार अपराजितसूरि के अनुसार परसाक्षी अर्थात् आचार्य की साक्षी से आलोचना करने से मायाशल्य दूर होता है, मान कषाय जड़ से उखड़ जाती है, गुरुजनों के प्रति आदरभाव व्यक्त होता है तथा मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। आलोचना और आराधना ___ उत्तम अर्थ की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना आराधना है। औपपातिक टीका के अनुसार ज्ञान आदि गुणों की विशेष रूप से अनुपालना आराधना है। इन गुणों को खंडित न होने देना तथा खंडित होने पर उसको सरलता से प्रकट कर देना आराधना है। जैन धर्म में आराधक जीवन का विशेष महत्त्व है। बत्तीस योग-संग्रह में अंतिम योग मारणांतिक आराधना है। आराधना मुख्यतः तीन प्रकार की होती है-ज्ञान आराधना, दर्शन आराधना और चारित्र आराधना। इन तीनों के तीन-तीन भेद होते हैं -जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। आलोचना और आराधना का गहरा सम्बन्ध है। जो माया के कारण आलोचना नहीं करता, उसके तीनों जन्म गर्हित हो जाते हैं, वह विराधक बन जाता है। जो आलोचना करके निःशल्य हो जाता है, वह निश्चित रूप से आराधक होता है। जो यह सोचते हैं कि कल, परसों या आगे मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्र 1. पंचा 15/39; पूजितो भवति। तत्परतंत्रया वृत्तेर्मार्गप्रख्यापनाच कृता स्यात्।। आलोयणं अदाउं,सति अण्णम्मि वि तहऽप्पणो दाउं। ५.सम 32/1/5 / जे वि ह करेंति सोहिं, तेऽवि ससल्ला विणिद्दिट्ठा।। ६.स्था 3/434, भ८/४५१ / 2. जीभा 411 / 7. भ८/४५२-५४। 3. जीभा 409, 410, ओनि 795,796 / ८.स्था८/१०। 4. भआ 536 विटी पृ. 392; परसाक्षिकायां शुद्धौ मायाशल्यं ९.भ 3/192, मवि 78 ; आलोइय निस्सल्ला, मरिउं आराहगा निरस्तं भवति। मानकषायो निर्मूलितो भवति। गुरुजनः ते वि।