________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 103 आचार्य हरिभद्र के अनुसार इन गुणों से युक्त साधु भाव-विशुद्धि के लिए आलोचना कर सकता है-संविग्न, अमायी, मतिमान्, कल्पस्थित, अनाशंसी (आकांक्षा रहित) प्रज्ञापनीय-जिसे समझाना सरल हो, श्रद्धालु, आज्ञावान्, दुष्कृत-अनुतापी। आगमव्यवहारी की स्मारणा विधि आगमव्यवहारी आलोचक के अपराध और उसकी शोधि को प्रत्यक्ष जानते हैं फिर भी वे दूसरों के द्वारा आलोचना करने पर उसे सुनकर ही प्रायश्चित्त का प्रयोग करते हैं। उनके सामने यदि आलोचक निसर्गत: अपने अतिचारों को भूल जाता है तो वे उसे अतिचारों की स्मृति करवाते हैं। स्मृति दिलाने पर यदि वह उस अपराध को सम्यक् रूप से स्वीकृत कर लेता है तो उसे प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा अन्यत्र शोधि करने की बात कहते हैं। यदि माया के कारण वह दोषों को छिपाता है अथवा वे यह जानते हैं कि यह अपराध याद कराने पर भी आलोचना स्वीकार नहीं करेगा तो वे आलोचनीय की स्मृति नहीं करवाते। आगमव्यवहारी आलोचक की द्रव्य, पर्याय, क्रम, क्षेत्र, काल और भाव से विशुद्ध आलोचना सुनते हैं उसके पश्चात् व्यवहार का प्रयोग करते हैं। यदि प्रतिसेवक अपने सभी अतिचारों की यथाक्रम से आलोचना नहीं करता तो वे उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। 'किसी दोष को छिपाये बिना अतिचारों को कहो' ऐसा कहने पर भी यदि वह सरलता से आलोचना नहीं करता, दोष छिपाता है तो आगमव्यवहारी उसे अन्य आचार्य के पास जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। आगमव्यवहारी आलोचना देते समय सूत्र और अर्थ-दोनों से आगम-विमर्श करते हैं। यदि आगम और आलोचना-दोनों में विषमता होती है अर्थात् जिस रूप में उसने आलोचना की है, उसके अतिचारों को उस रूप में नहीं देखते, न्यूनाधिक देखते हैं तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। यदि आलोचना और आगम-दोनों समान होते हैं तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त देते हैं। आलोचना परसाक्षी से ही क्यों? ___प्रश्न हो सकता है कि जब व्यक्ति को अपने दुष्कृत्यों की आलोचना करनी है तो वह आत्मसाक्षी से भी की जा सकती है, दूसरे के पास करनी क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य . / १.पंचा 15/12; संविग्गो उ अमाई, मइमं कप्पट्टिओ अणासंसी। पण्णवणिज्जो सद्धो, आणाइत्तो दुकडतावी।। 2. जीभा 146, निभा 6394 / ३.जीभा 131 / 4. जीभा 143, भआ 620, व्यभा 4065 / 5. जीभा 145 / ६.जीभा 139 / ७.जीभा 147,148, व्यभा 4068,4069 /