________________ 102 जीतकल्प सभाष्य आलोचक की योग्यता आलोचना विशोधि का सशक्त उपक्रम है। अपने अपराधों या अतिचारों की आलोचना करना इतना सरल नहीं होता। बिना धृति के व्यक्ति अपनी दुर्बलता को प्रकट नहीं कर सकता। निम्न गुणों से युक्त साधु ही विशुद्ध हृदय से अपनी आलोचना कर सकता है१. जाति सम्पन्न-जाति सम्पन्न मुनि प्रायः अकरणीय कार्य नहीं करता। यदि प्रमादवश अकृत्य हो जाए तो वह उसकी सम्यक् आलोचना कर लेता है। 2. कुल सम्पन्न-कुल सम्पन्न साधु प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यक् निर्वहन करता है। वह बहाने बनाकर प्रायश्चित्त को कम नहीं करवाता। 3. विनय सम्पन्न-विनय सम्पन्न साधु सहजता से गुरु के प्रायश्चित्त को स्वीकार करता है तथा सभी विनय-प्रतिपत्तियों का निर्वाह करता है। 4. ज्ञान सम्पन्न-ज्ञान सम्पन्न मुनि श्रुत के अनुसार सम्यक् आलोचना करता है। वह जान लेता है कि अमुक श्रुत के आधार पर मुझे प्रायश्चित्त दिया गया है, यह प्रायश्चित्त मेरी आत्मशोधि करने वाला है। 5. दर्शन सम्पन्न-दृष्टि की विशुद्धता के कारण दर्शन सम्पन्न साधु प्रायश्चित्त से शुद्धि में विश्वास करता है। वह प्राप्त प्रायश्चित्त के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखता। 6. चारित्र सम्पन्न-चारित्र सम्पन्न मुनि पुनः अतिचारों का सेवन नहीं करता। वह चारित्र की स्खलनाओं की सम्यक् आलोचना करता है। 7. क्षान्त-क्षमाशील और सहनशील मुनि गुरु के कठोर अनुशासन को भी सम्यक् रूप से ग्रहण करता 8. दान्त-इंद्रिय और मन पर संयम करने वाला कठोर तप के प्रायश्चित्त का भी सम्यक् वहन कर सकता है। 9. अमायी-अमायी साधु बिना कुछ छिपाए सरल हृदय से अपने सभी अपराधों की आलोचना करता है। 10. अपश्चात्तापी-अपश्चात्तापी मुनि अपने बड़े से बड़े अपराध की आलोचना करके भी पश्चात्ताप नहीं करता। वह यह मानता है कि मैं पुण्यशाली हूं, जो प्रायश्चित्त स्वीकार करके आराधक बन गया १.स्था 8/19, 10/71, भ 25/553 /