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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 101 1. गीतार्थ-वह सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ में निपुण होना चाहिए। कम से कम कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार आदि छेदसूत्र और उसकी नियुक्ति का ज्ञाता होना चाहिए।' 2. कृतकरण-जो आलोचना देने में सहयोगी रह चुका हो। 3. प्रौढ़-बिना किसी हिचकिचाहट के प्रायश्चित्त देने में समर्थ। 4. परिणामक-अपरिणामक और अतिपरिणामक आचार्य आलोचना देने के योग्य नहीं होता। जिसकी बुद्धि सूत्र और अर्थ तथा उत्सर्ग और अपवाद-दोनों में परिणत होती है, वह परिणामक कहलाता है। 5. गंभीर-आलोचक के महान् दोषों को सुनकर भी जो उसको पचाने में समर्थ हो। पूर्व वर्णित अपरिस्रावी योग्यता से इसकी तुलना की जा सकती है। 6. चिरदीक्षित जो कम से कम तीन वर्ष से अधिक दीक्षा पर्याय वाला हो। 7. वृद्ध-जो श्रुत, पर्याय और वय-इन तीनों से स्थविर हो।' इन विशेषताओं के अतिरिक्त आचार्य हरिभद्र ने आलोचनार्ह में कुछ और विशेषताओं का वर्णन किया है-वह. परहित में उद्यत, सूक्ष्मभावकुशलमति सम्पन्न, दूसरों के चित्त के भावों को अनुमान से जानने वाला होना चाहिए। धवला के अनुसार आस्रव से रहित, श्रुत रहस्य के ज्ञाता, वीतराग, रत्नत्रय में मेरु के समान स्थिर गुरु के समक्ष अपनी आलोचना करनी चाहिए। मूलाचार के अनुसार जो ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र-इन चारों आचारों में अविचल, धीर, आगम में निपुण और गुप्त दोषों को दूसरों के समक्ष प्रकट नहीं करने वाला आचार्य आलोचना सुनने के योग्य होता है / मरणविभक्ति प्रकीर्णक में विशोधि करने वाले आलोचनार्ह आचार्य के आचार की मेरुपर्वत, सागर, पृथ्वी, चन्द्रमा और सूर्य से तुलना की है। . इस प्रकार आलोचनार्ह तटस्थ, परिस्थिति का ज्ञाता, निर्दोष, मृदुभाषी तथा आत्मानुशासित होना चाहिए, जिससे उसके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त प्रतिसेवक के लिए आदेय हो जाए। 1. वैदिक परम्परा के अनुसार वेदविद्या के जानकार अग्निहोत्री तह परहियम्मि जुत्तो, विसेसओ सुहुमभावकुसलमती। ___तीन या चार ब्राह्मणों के समूह की परिषद् ही प्रायश्चित्त भावाणुमाणवं तह, जोग्गो आलोयणायरिओ।। दे सकती है। जो धर्मशास्त्र जाने बिना प्रायश्चित्त बताता 4. षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 60; गुरूणमपरिस्सवाणं है तो प्रायश्चित्त करने वाले की तो शुद्धि हो जाती है सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरुव्व थिराणं सगदोसलेकिन उसका पाप परिषद् को लग जाता है। (पारा 8/14, णिवेयणमालोयणा......। 5. मूला 57; 2. व्यभा 2378; णाणम्हि दंसणम्हि य, तवे चरिते य चउस वि अकंपो। गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा। धीरो आगमकुसलो, अपरिस्साई रहस्साणं / / चिरदिक्खिया य वुड्डा, जतीण आलोयणा जोग्गा।। 6. मवि 93; 3. पंचा 15/15; तेसिं मेरु-महोयहि-मेयणि-ससि-सूरसरिसकप्पाणं। पामूले य विसोही, करणिज्जा सुविहियजणेणं / /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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