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________________ 100 जीतकल्प सभाष्य दृष्टान्त से समझाया है। किसी खेत में सांड घुसने पर मालिक ने बाड़े को बंद करके उसकी खूब पिटाई की। भयाक्रान्त सांड के इधर-उधर भागने से सारी फसल नष्ट हो गई। इसी प्रकार अल्प अपराध या प्रतिसेवक की स्थिति जाने बिना उपाय-कौशल से रहित प्रेरणा देने वाला आलोचनार्ह प्रतिसेवक मुनि के शेष चारित्र को भी नष्ट कर देता है। 7. अपायदर्शी-सम्यक् आलोचना न करने पर उससे उत्पन्न ऐहलौकिक एवं पारलौकिक दोषों को बताने वाला, जिससे वह सरलता से हृदय की ग्रन्थियां खोल सके। मरणविभक्ति प्रकीर्णक में इसके लिए अपायविधिज्ञ शब्द का प्रयोग हुआ है।' 8. अपरिस्रावी-आलोचक के द्वारा प्रकट किए गए दोषों को दूसरों को नहीं बताकर गंभीरता से उसे भीतर पचाने वाला। अपरिस्रावी विशेषता को प्रकट करने में भाष्यकार ने दृढ़मित्र' का दृष्टान्तं प्रस्तुत किया है। भगवती आराधना में इन सभी गुणों का दृष्टान्त सहित विस्तृत वर्णन किया है।' स्थानांग और भगवती सूत्र में अंतिम तीन गुणों का क्रम इस प्रकार है-अपरिस्रावी, निर्यापक एवं अपायदर्शी / दसवें स्थानांग और भगवती सूत्र में दस गुणों का उल्लेख मिलता है। इन आठ गुणों के अतिरिक्त वहां प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा-ये दो गुण अतिरिक्त मिलते हैं। ... व्यवहारभाष्य में आलोचना श्रवण के योग्य व्यवहारी आचार्य की निम्न विशेषताएं वर्णित हैं१. मवि 87 ; तह य अवायविहन्नू। कहा-'मैं सारी व्यवस्था कर दूंगा।' दृढ़मित्र ने वनचरों से 2. दंतपुर नगर में दंतवक्त्र नामक राजा राज्य करता था। मित्रता स्थापित करके उनसे दांत प्राप्त कर लिए। उन्होंने उसकी रानी का नाम सत्यवती था। उसके मन में दोहद घास के पुलों में छिपाकर दांतों का एक शकट भर दिया। उत्पन्न हुआ कि मैं दंतमय प्रासाद में क्रीड़ा करूं। उसने नगरद्वार पर एक बैल ने घास का पूला खींच लिया। इससे अपना दोहद राजा को बताया। राजा ने अमात्य को दंतमय उसमें छिपे दांत नीचे आकर गिर पड़े। चोर समझकर प्रासाद बनाने की आज्ञा दी। अमात्य ने नगर में घोषणा राजपुरुषों ने उसको पकड़ लिया। दृढ़मित्र बोला-'ये करवाई कि जो दूसरों से हाथी दांत खरीदेगा और अपने दांत मेरे अधिकार में हैं।' इतने में ही धनमित्र आकर घर में एकत्रित दांत नहीं देगा, उसे शूली की सजा भुगतनी बोला- 'ये दांत मेरे अधिकार में हैं।' दोनों अपनी बात होगी। पर दृढ़ थे। राजा ने कहा-'तुम दोनों निरपराधी हो, मुझे उसी नगर में धनमित्र नामक सार्थवाह की दो पलियां यथार्थ बात बताओ।' उन्होंने दांतों की पूरी बात बताई। थीं। एक का नाम धनश्री तथा दूसरी का नाम पद्मश्री था। राजा उनकी बात सुनकर बहुत संतुष्ट हुआ और दोनों एक बार दोनों में कलह होने पर पद्मश्री ने धनश्री को को मुक्त कर दिया। आलोचनाह को ऐसा ही अपरिनावीकहा-"तू क्यों गर्व करती है?" क्या तूने रानी सत्यवती अर्थात् दृढ़मित्र की भांति गोप्य बात को प्रकट नहीं करने की भांति अपने लिए दंतमय प्रासाद बनवाया है? धनश्री वाला होना चाहिए। (व्यभा 517 टी प. 17) को यह बात चुभ गई। उसने पति के समक्ष हठ पकड़ 3. व्यभा 520 / लिया कि मेरे लिए दंतमय प्रासाद बनवाना पड़ेगा। उसने 4. द्र. भआ 449-510 / अपने पति से आलाप-संलाप करना बंद कर दिया। धनमित्र 5. स्था 8/18, भ. 25/554 / ने अपने मित्र दृढ़मित्र को सारी बात कही। दृढ़मित्र ने 6. स्था 10/72, भ. 25/554 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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