________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श आलोचनाह की योग्यता __ आलोचनाह की योग्यता का शास्त्रकारों ने विशद विवेचन किया है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार बहुत आगमों का ज्ञाता, आलोचक के मन में समाधि उत्पन्न करने वाला तथा गुणग्राही आचार्य आलोचना सुनने के योग्य होता है। प्रायश्चित्त देने वाले आचार्य को सभी अपराधस्थानों का भी ज्ञान होना चाहिए, इनको जाने बिना वह प्रायश्चित्त नहीं दे सकता। आलोचनाह के आठ गुण बताए गए हैं - 1. आचारवान्–आचार के प्रति दृढ़ आस्थावान् तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांच आचारों से युक्त। 2. अवधारवान्–आलोचक द्वारा आलोचित या आलोच्यमान समस्त अतिचारों को धारण करने में समर्थ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार चौदहपूर्व, दशपूर्व एवं नवपूर्व का धारक, महामतिमान्, सागर के समान गंभीर, कल्प एवं प्रकल्प का धारक आचार्य आधारवान् या अवधारवान् होता है। 3. व्यवहारवान्–आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत–इन पांच व्यवहारों का ज्ञाता तथा इनके आधार पर प्रायश्चित्त देने में कुशल। 4. अपव्रीडक- आलोचक को मधुर वचनों से साहस उत्पन्न करने वाला, जिससे आलोचक लज्जामुक्त ..होकर निःसंकोच रूप से अपने दोषों को बता सके। 5. प्रकुर्वी-राग-द्वेष मुक्त होकर सम्यक् प्रायश्चित्त देकर आलोचक की भावविशोधि करने वाला। मरणविभक्ति प्रकीर्णक में प्रकुर्वी के स्थान पर विधिज्ञ शब्द का प्रयोग हुआ हैं, जो इसी का संवादी है।' भगवती आराधना के अनुसार अपने श्रम की गणना न करके आलोचक का उपकार करने वाला प्रकुर्वक होता है। 6. निर्यापक-ऐसा प्रायश्चित्त देने वाला, जिसे प्रतिसेवक निभा सके। स्थानांग की टीका में इसका अर्थ आलोचक बड़े से बड़े प्रायश्चित्त का निर्वहन कर सके, इस रूप में मानसिक सहयोग देने वाला किया है। आ. महाप्रज्ञ के अनुसार यहां टीका का अर्थ अधिक संगत है। आलोचना के समय कठोर शब्दों का प्रयोग करने वाला आचार्य प्रतिसेवक की शोधि नहीं कर सकता। इस तथ्य को भाष्यकार ने एक 1.3 36/262 बहुआगमविण्णाणा, समाहिउप्पायगा य गुणगाही। .. एएण कारणेणं, अरिहा आलोयणं सोउं।। २.भ 25/554 / ३.भआ४३०। 4. मवि 86 / 5. भआ 459 / 6. स्थाटी प. 461; निज्जवए यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निर्वोढुमलं भवति। ७.स्था का टिप्पण पृ. 979 /