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________________ जीतकल्प सभाष्य 7. शब्दाकुल-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिससे अगीतार्थ भी सुन सके। भगवती आराधना के अनुसार जब सब मुनि एक साथ पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक आलोचना करते हैं, तब अपने दोषों को कहना जिससे गुरु को दोष ज्ञात न हो सकें। 8. बहुजन-एक के पास आलोचना करके फिर उसी दोष की दूसरे के पास भी आलोचना करना अथवा एक आचार्य द्वारा दिए गए प्रायश्चित्त में अश्रद्धा करके अन्य आचार्य को पूछना कि आचार्य ने सम्यक् प्रायश्चित्त दिया है या नहीं अथवा अनेक लोगों के बीच आलोचना करना। तत्त्वार्थ की श्रुतसागरीय टीका में इसका अर्थ जब बहुत बड़ा संघ एकत्रित हो, तब दोष प्रकट करना किया है। 9. अव्यक्त-अगीतार्थ या बाल मुनि के पास आलोचना करना। 10. तत्सेवी-पार्श्वस्थ अथवा उस आचार्य के पास आलोचना करना, जो उस दोष का सेवन कर चुका हो या वर्तमान में कर रहा हो, जिससे उसे कम प्रायश्चित्त मिले। षट्प्राभृत में तत्सेवी का अर्थ जिस दोष का प्रकाशन किया है, उसका पुनः सेवन करना किया है। कहीं-कहीं तत्त्वार्थराजवार्तिक तथा श्रुतसागरीय वृत्ति में इन दोषों की व्याख्या में कुछ अंतर है। भगवती आराधना में विस्तार से इन दोषों का विवेचन हुआ है। आलोचना के प्रायः दोष माया के साथ जुड़े हुए हैं। माया रहित होकर आलोचना करने वाला आलोचक स्वतः इन दोषों से मुक्त हो जाता है। आलोचक को आलोचना के समय शारीरिक और वाचिक दृष्टि से होने वाले इन दोषों का वर्जन करना चाहिए नृत्य-अंगों को नचाते हुए आलोचना करना। वल-शरीर को मोड़ते हुए आलोचना करना। चल-अंगों को चालित करते हुए आलोचना करना। भाषा-असंयत या गृहस्थ की भाषा में आलोचना करना। मूक-मूक स्वर में बुदबुदाते हुए आलोचना करना। ढड्डर-उच्च स्वर में आलोचना करना। पंचवस्तु में वल दोष नहीं है केवल पांच दोष हैं। 1. मूलाचार में इसे शब्दाकुलित दोष माना है। 2. षट्प्राभृत 1/9 श्रुतसागरीय वृत्ति पृ.९। 3. तवा 9/22 पृ. 621 / 4. भआ 564-608 / 5. ओनि 516,517; नट्टं वलं चलं भासं, मूयं तह ढङ्करं च वज्जेज्जा। आलोएज्ज सुविहिओ, हत्थं मत्तं च वावारं / / एयद्दोसविमुक्कं, गुरुणा गुरुसम्मयस्स वाऽऽलोए। तं जह गहियं तु भवे ,पढमाओ जा भवे चरिमा।। 6. पंव 331-33, भआ 609 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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