________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श आलोचना-विधि के दोष आलोचना को विधिवत् करना आवश्यक है। अविधि से की गई आलोचना फलदायी नहीं होती। जिस प्रकार कुवैद्य यदि अन्यथा रूप से रोग की चिकित्सा करे तो रोग का निवारण नहीं होता अथवा अविधि से विद्या सिद्ध की जाए तो वह सिद्ध नहीं होती, वैसे ही अविधि से की गई आलोचना से जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा का भंग होता है। आलोचना-विधि के दश दोष हैं१. आकम्प्य-आलोचनाह की अशन-पान आदि से सेवा करके उनको प्रसन्न करके अथवा करुणा उत्पन्न करके आलोचना करना। दिगम्बर परम्परा में इसे आकम्पित दोष माना है। तत्त्वार्थ की श्रुतसागरीय टीका में इसका अर्थ किया है—'आचार्य मुझे दण्ड न दें' इस भय से आलोचना करना। 2. अनुमान्य-ये आचार्य मुझे कम दंड देंगे या अधिक, यह अनुमान करके मृदु दंड देने वाले के पास आलोचना करना। निशीथ चूर्णि के अनुसार यह अनुनय करके आलोचना करना कि मैं दुर्बल हूं, शरीर से रोगी हूं अत: मुझे कम दंड देना। आपकी कृपा से यदि कम दण्ड मिलेगा तो मैं अपराधमुक्त हो जाऊंगा। दिगम्बर साहित्य में इसे 'अनुमानित' दोष माना है। 3. यदृष्ट-मायापूर्वक उसी दोष की आलोचना करना, जो आचार्य अथवा किसी दूसरे के द्वारा देखा गया हो। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में इसका नाम 'मायाचार' भी मिलता है।' 4. बादर-केवल स्थूल दोषों की आलोचना करना, सूक्ष्म अतिचारों को छिपा देना। राजवार्तिक में इसका नाम 'स्थूल' मिलता है। 5. सूक्ष्म-बड़े दोषों को छिपाकर केवल छोटे दोषों की आलोचना करना। इस भय से बड़े दोष छिपाना कि आचार्य मुझे बड़ा प्रायश्चित्त देंगे अथवा मुझे संघ से अलग कर देंगे। 6. छन-अप्रकट रूप से अथवा मंद शब्दों में आलोचना करना, जिससे आचार्य स्पष्ट रूप से न सुन सकें। दिगम्बर परम्परा में इसके लिए प्रच्छन्न शब्द का प्रयोग हुआ है। मूलगुण और उत्तरगुण में ऐसी विराधना होने पर क्या प्रायश्चित्त तप दिया जाता है, इस प्रकार प्रच्छन्न रूप से पूछना और उसके अनुसार अपनी शुद्धि कर लेना प्रच्छन्न दोष है। १.पंचा 15/5 / २.भ.२५/५५२, स्था 10/70, व्यभा 523, भआ 564 / ३.तश्रुतटी पृ.९। 1. तवा 9/22 पृ.६२१ / .निचू 4 पृ. 363 / 6. भआ 570-75 / 7. तवा 9/22 पृ. 621 ; अन्यादृष्टदोषगूहनं कृत्वा प्रकाशदोषनिवेदनं मायाचारस्तुतीयो दोषः। 8. तवा 9/22 पृ. 621 / 9. तवा 9/22 पृ.६२१ /