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________________ जीतकल्प सभाष्य 5. क्रम-आगे-पीछे या अक्रमपूर्वक करना क्रम से अशुद्ध आलोचना है। माया की अपेक्षा से आलोचना के चार भंग बनते हैं संकल्पकाल में ऋजुता, आलोचनाकाल में ऋजुता। संकल्पकाल में ऋजुता, आलोचनाकाल में माया। संकल्पकाल में माया, आलोचनाकाल में ऋजुता। संकल्पकाल में माया और आलोचनाकाल में भी माया। इस प्रसंग को भाष्यकार ने अनेक व्यावहारिक दृष्टान्तों से स्पष्ट किया है। एक शिकारी घर से . यह सोचकर चला कि मैं सारा मांस स्वामी को दे दूंगा। जाते ही स्वामी ने उसके साथ अच्छा व्यवहार किया। स्वामी के मृदु व्यवहार से प्रभावित होकर उसने प्रसन्नता से सारा मांस दे दिया। इसके विपरीत दूसरा शिकारी भी मालिक को सारा मांस देने की भावना से प्रस्थित हुआ। स्वामी के कर्कश व्यवहार और डांट-फटकार से क्षुभित होकर उसने कुछ मांस छिपाकर अपने पास रख लिया। दृष्टान्त को घटित करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि आलोचक गुरु के पास जाता है, उस समय यदि आचार्य कहें कि तुम धन्य हो, कृतपुण्य हो जो गुप्त अपराधों को प्रकट करके आलोचना के लिए उपस्थित हुए हो। प्रतिसेवना करना कोई बड़ी बात नहीं है, दुष्कर है आलोचना करना। आलोचना करने वाला हल्केपन का अनुभव करता है। मनोवैज्ञानिक ढंग से कही गई इस बात को सुनकर आलोचक ऋजुतापूर्वक आलोचना कर लेता है। यदि आचार्य उसे यह कहे कि तुम साधु बनकर भी ऐसी स्खलनाएं करते हो, धिक्कार है तुम्हें / इस बात को सुनकर वह अपनी पूर्ण आलोचना नहीं कर पाता, अपने दोषों को छिपा लेता है। कभी-कभी ताड़ना से कुपित होकर वह आचार्य का घात भी कर सकता है। भाष्यकार ने इसी प्रकार गाय का दृष्टान्त भी प्रस्तुत किया है। जंगल से लौटने वाली गाय को गृहस्वामी यदि मधुरता से नामोल्लेख पूर्वक पुचकारता है, पीठ थपथपाता है, आगे चारा रख देता है तो वह सारे दूध का क्षरण कर देती है। इसके विपरीत पीटना आदि कर्कश व्यवहार से वह लात मार देती है, पूरा दूध नहीं देती। उसी प्रकार आलोचना देने वाले आलोचक को यदि आचार्य प्रोत्साहन देते हैं, उसका उत्साह बढ़ाते हैं, उसके इस कृत्य की सराहना करते हैं तो वह ऋजुतापूर्वक आलोचना करता है। तिरस्कृत होने वाला आलोचक माया करके दोष को छिपा लेता है। भगवती आराधना में भी मायापूर्वक की जाने वाली आलोचना को अनेक दृष्टान्तों से स्पष्ट किया है। 1. व्यभा 580-84 मटी प. 39-41 / 2. भआ 567-69 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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