SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श उसकी माया या ऋजुता को जान सकें। प्रथम बार आलोचना करने पर नींद का अभिनय करते हुए आचार्य कहते हैं कि मैं निद्रा प्रमाद में चला गया था। दूसरी बार आचार्य कहते हैं कि मैंने तुम्हारे अतिचारों की पूरी अवधारणा नहीं की, उस समय मैं अनुपयुक्त था। पुनः आलोचना करने पर यदि तीनों बार सदृश आलोचना होती है तो वे जान लेते हैं कि यह ऋजुता से आलोचना कर रहा है, यदि तीनों बार के कथन में विसंवादिता होती है तो उन्हें ज्ञात हो जाता है कि यह मायापूर्वक आलोचना कर रहा है। बौद्ध परम्परा में भी अपराध की स्वीकृति तीन बार करवाने का विधान है। लौकिक न्याय करते समय भी न्यायकर्ता अपराधी से तीन बार वस्तुस्थिति का ज्ञान करते थे। यदि अपराधी विसदृश बोलता तो उसे राजकुल में मृषा बोलने एवं माया करने का अधिक दंड मिलता था। जब श्रुतव्यवहारी को उसकी माया ज्ञात हो जाती है तो वे उसे अश्व के दृष्टान्त से प्रतिबोध देते हैं। एक राजा के पास सर्वलक्षणयुक्त अश्व था। अन्य राजाओं ने अश्व को अपहृत करना चाहा लेकिन कड़ी सुरक्षा के कारण अश्व का अपहरण करना संभव नहीं था। एक व्यक्ति ने गुप्त रूप से एक कोमल बाण के अग्र भाग में क्षुद्र कंटक लगाकर बाण छोड़ा। बाण अश्व के लगा और कंटक की अग्र अणी उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई। उसी दिन से अश्व का शरीर सूखने लगा। राजा ने चिंतित होकर वैद्य को बुलाया। वैद्य ने एक साथ अनेक कर्मकरों से घोड़े के पूरे शरीर में लेप करवाया। शरीर के जिस भाग में लेप पहले सूख गया, उस आधार पर वैद्य ने जान लिया कि यहां कंटक चुभा है। वैद्य ने शल्योद्धरण कर दिया। शल्य निकलने से घोड़ा स्वस्थ हो गया। निगमन करते हुए आचार्य मायावी शिष्य को प्रतिबोध देते हैं कि तुम भी माया छोड़कर अपने हृदय को सरल बनाकर शल्य को दूर करो। माया बहुत बड़ा शल्य है, वह इहलोक और परलोक-दोनों को बिगाड़ देता है। . शिष्य गुरु के समक्ष चार प्रकार से माया करके अशुद्ध आलोचना करता है१. द्रव्य–सचित्त की प्रतिसेवना करके अचित्त की आलोचना करना द्रव्यतः अशुद्ध है। 2. पर्याय-अन्य अवस्था में प्रतिसेवना करके अन्य अवस्था की आलोचना करना पर्याय से अशुद्ध आलोचना है, जैसे स्वस्थ अवस्था में प्रतिसेवना करके ग्लान अवस्था की आलोचना करना। 3. क्षेत्र-जनपद में प्रतिसेवना करके अटवीगत मार्ग की आलोचना लेना क्षेत्रतः अशुद्ध आलोचना है। 4. काल-सुभिक्ष में प्रतिसेवना करके दुर्भिक्ष का कहना, रात्रि में प्रतिसेवना करके दिन का कहना कालतः अशुद्ध आलोचना है। १.व्यभा 320 मटी प.४३, अनध 7/39 ; स्वागस्विरार्जवाद्वा- 2. व्यभा 320,321 मटी प. 43, 44 / व्यम्। 3. जीभा 132, 133, व्यभा 149, 150 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy