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________________ जीतकल्प सभाष्य बलशाली देव नहीं बनता, न ही ऊंची गति वाला और दीर्घ आयु वाला देव बनता है। देवलोक की बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् उसे आदर और सम्मान नहीं देती। यदि वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तो चारपांच देव बिना कहे ही खड़े होकर उसे बोलने से रोक देते हैं। देवलोक से च्युत होकर वह मनुष्य लोक में अंतकुल, प्रान्तकुल आदि में उत्पन्न होकर पराभव को प्राप्त करता है। इसके विपरीत जो आलोचना, प्रतिक्रमण करके कालगत होता है, वह उच्च देवलोक में ऋद्धिशाली देव बनकर आभ्यन्तर और बाह्य परिषद् में सम्मान को प्राप्त करता है तथा मनुष्यलोक में भी उच्चकुल आदि प्राप्त होता है। ___जैन आचार्य स्थान-स्थान पर इस बात का उल्लेख करते हैं कि जैसे बालक सरलता से अपने कार्य और अकार्य को प्रकट कर देता है. वैसे ही मनि को माया और अहंकार से मुक्त होकर गुरु के पास आलोचना करनी चाहिए। भगवती आराधना के अनुसार आलोचना के समय दोष छिपाने हेतु माया करना प्रतिकुञ्चन माया है। छेद सूत्रों में उल्लेख मिलता है कि मायापूर्वक आलोचना करने से प्रायश्चित्त की वृद्धि होती जाती है। जैसे कोई भिक्ष द्वैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके ऋजता से आलोचना करता है तो उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि वह मायापूर्वक आलोचना करता है तो उसे त्रैमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। माया के कारण एक गुरुमास अधिक प्राप्त होता है। चूर्णिकार के अनुसार मायारहित आलोचना करने वाले को लघु और गुरु-दोनों प्रकार का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है लेकिन मायापूर्वक आलोचना करने वाले को गुरु प्रायश्चित्त ही प्राप्त होता है। पाराशर स्मृति के अनुसार पाप करके माया नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसको छिपाने से पाप बढ़ता चला जाता है। पाप करने के पश्चात् तब तक भोजन नहीं करना चाहिए. जब तक ब्राह्मणों की परिषद में बताया न जाए। पापी का पाप परिषद के आदेश से वैसे ही नष्ट हो जाता है, जैसे पत्थर पर पड़ा जल वायु और सूर्य की किरण से नष्ट हो जाता है। यदि आलोचक आगमव्यवहारी के पास आलोचना करता है तो वे उसके अतिचारों को साक्षात् जानते हैं लेकिन परोक्षज्ञानी चेहरे के आकार, इंगित, स्वर और पूर्वापरसंवादिनी भाषा के आधार पर जानते हैं कि आलोचक मायापूर्वक आलोचना कर रहा है या ऋजुता से। ऋजुता से आलोचना करने वाले का स्वर अक्षुब्ध, अव्याकुल और स्पष्ट होता है। श्रुतव्यवहारी आलोचक से तीन बार आलोचना सुनते हैं, जिससे वे १.स्था 8/10 / 2. व्यभा 4299; जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणति। तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ।। 3. व्यसू. 1/2, निसू 20/2 / ४.निचू 4 पृ. 271; अपलिकंचियं आलोण्माणसमा लहुगं गुरुगं वा पडिसेवणाणिप्फण्णं दिज्जति। जो पुण पलिकुंचियं आलोएइ, तस्स जं दिज्जति पलिउंचणमासो य मायाणिप्फण्णो गुरुगो दिज्जति। 5. पारा 8/4, 6, 17, 18 / ६.व्यभा 323 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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