________________ अनुवाद-जी-३५ 415 के वनीपकत्व में भद्रक और प्रान्त आदि दोष होते हैं। (यदि व्यक्ति भद्रक होता है तो वह प्रशंसावचन सुनकर मुनि को आधाकर्म से प्रतिलाभित करता है और यदि वह प्रान्त होता है तो मुनि को घर से बाहर निकाल देता है।) 1383. 'पात्र या अपात्र को दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं होता'-ऐसा कहना भी दोषयुक्त है तो भला अपात्र- दान की प्रशंसा करना महान् दोषप्रद है। 1384. वनीपकपिण्ड का वर्णन कर दिया, अब मैं चिकित्सापिण्ड' के बारे में कहूंगा। चिकित्सा दो प्रकार की होती है-सूक्ष्म और बादर। 1385. सूक्ष्म चिकित्सा करके आहार ग्रहण करने पर लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध प्राप्त होता है। बादर चिकित्सा करके आहार ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1386, 1387. भिक्षार्थ जाने पर यदि कोई रोगी किसी औषधि के बारे में पूछता है तो मुनि कहता है कि क्या मैं वैद्य हूं? यह प्रथम सूक्ष्म चिकित्सापिण्ड है। इसमें अर्थापत्ति से सूचित किया गया है कि तुमको अपने रोग के बारे में वैद्य से पूछना चाहिए। यह अबुध और अज्ञानी को बोध देने वाली सूक्ष्म चिकित्सा है। 1388. रोगी के पूछने पर मुनि कहता है- 'मैं भी इस दुःख अथवा रोग से ग्रस्त था, अमुक औषधि से मैं रोगमुक्त हो गया। हम मुनि सहसा समुत्पन्न रोग का निवारण तेले आदि की तपस्या से करते हैं।' 1389. यह द्वितीय चिकित्सा का प्रकार है। ये दो सूक्ष्म-चिकित्सा के प्रकार हैं। बादर चिकित्सा में मुनि स्वयं ही वैद्य बनकर चिकित्सा करता है। 1390. आगंतुक अथवा धातुक्षोभज रोग के समुत्पन्न होने पर मुनि जो क्रिया करता है, वह इस प्रकार है-पहले पेट का संशोधन करता है फिर पित्त आदि का उपशमन करता है, तदनन्तर रोग के कारण का परिहार करता है। (यह तीसरे प्रकार की चिकित्सा है।) 1391. असंयत की चिकित्सा करने पर तथा सूक्ष्म चिकित्सा-क्रिया करने पर अनेकविध दोष उत्पन्न होते हैं। 1392. चिकित्सा-क्रिया में असंयम योगों का सतत प्रवर्तन होता है क्योंकि गृहस्थ तप्त लोहे के गोले के समान होता है। (गृहस्थ यावज्जीवन षड्जीवनिकाय के घात में प्रवर्तित होता है अतः उसकी चिकित्सा सतत असंयमयोगों का कारण बनती है)। इस प्रकरण में दुर्बल व्याघ्र का दृष्टान्त जानना चाहिए। यदि चिकित्सा करने पर भी रोग अत्युग्र हो जाता है तो गृहस्थ उसका निग्रह करता है, जिससे प्रवचन की निंदा होती है। 1. चिकित्सापिण्ड के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 96, 97 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.४२।