________________ अनुवाद-जी- 103 525 2589. लिंग, क्षेत्र और काल से जो पाराञ्चित और अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का वहन करते हैं, वे द्रव्यतः और भावतः लिंग पाराञ्चित आदि प्रायश्चित्त तीर्थ की अवस्थिति तक वहन करते हैं। 103. सुविहित साधुओं के प्रति अनुकम्पा के लिए यह जीतकल्प संक्षेप में कहा गया है। पात्र के गुणों की परीक्षा करके यह प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2590. इस प्रकार अनंतर रूप से जीतकल्प उद्दिष्ट किया गया है। जीत, आचरणीय या कल्प छह प्रकार का होता है। 2591. आजीवन धारण किया जाने वाला जीतकल्प है अथवा जीत का कल्प जीतकल्प कहलाता है। 2592. कल्पशब्द निम्न अर्थों में प्रयुक्त होता है-१. सामर्थ्य 2. वर्णन 3. छेदन 4. करण 5. औपम्य और 6. अधिवास। 2593. यहां छेदन और वर्णन के अर्थ में कल्प शब्द का प्रयोग हुआ है। जीत का वर्णन तथा छेदन जीतकल्प कहलाता है। 2594. यह जीतकल्प का संक्षिप्त अर्थ जानना चाहिए। संक्षेप, समास और ओघ-ये तीनों शब्द एकार्थक 2595. जिनकी विधि अर्थात् आचार अच्छा है, वे साधु सुविहित कहलाते हैं। उनके प्रति अनुकम्पा करके यह कहा गया है। यह प्रायश्चित्त पात्र को देना चाहिए। 2596. सूत्र से और अर्थ से भी जो जीतकल्प का पात्र होता है, वह योग्य कहलाता है, इसके विपरीत अयोग्य जानना चाहिए। . 2597. सूत्र 103 में आया 'पुनः' शब्द विशेषण के अर्थ में प्रयुक्त है। यह किसको विशेषित करता है? 1. कल्प शब्द की सामर्थ्य आदि अर्थ की व्याख्या इस प्रकार है१.सामर्थ्य अतिचार से मलिन मुनि भी प्रायश्चित्त के द्वारा विशोधि करने में कल्प-समर्थ होता है अथवा आठ वर्ष का व्यक्ति श्रामण्य पालन में कल्प-समर्थ होता है। 2. वर्णन–प्रायश्चित्त के जितने प्रकार हैं, उन सबका अथवा मूलगुण और उत्तरगुणों का इस सूत्र में कल्प-वर्णन है। 3. छेदन-तप प्रायश्चित्त अतिक्रान्त होने पर इस अध्ययन के द्वारा पांच दिन अथवा अधिक दिन के मुनि-पर्याय ___का कल्प-छेदन किया जाता है। 4. करण-कल्पाध्ययनवेत्ता वैसा प्रयत्न करता है, जिससे मुनि प्राप्त प्रायश्चित्त की सम्यक् अनुपालना कर सके अथवा कल्पविद् प्रायश्चित्त देने में आचार्य के सदृश होता है। 5. औपम्य-कल्पअध्ययन पढ़ लेने से प्रायश्चित्त-विधि में आचार्य पूर्वधर के कल्प-सदृश हो जाता है। 6. अधिवास-कल्पाध्ययनवेत्ता मासकल्प और वर्षाकल्प में एकस्थान पर परिपूर्ण कल्प-अधिवास कर सकता है तथा प्रयोजन होने पर न्यून या अधिक समय तक भी रह सकता है। 1. पंकभा 154-62, बृभापीटी पृ.४।