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________________ 524 जीतकल्प सभाष्य होकर संघ उस मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दे। पारांचित प्रायश्चित्त उस समय आदि, मध्य या अवसान वाला हो सकता है। उतना प्रायश्चित्त ही उसकी शोधि के लिए पर्याप्त होता है। 2578. संघ उस समय देश, देशदेश अथवा सारा प्रायश्चित्त वहन करवा सकता है तथा सम्पूर्ण प्रायश्चित्त से मुक्त भी कर सकता है। कुल प्रायश्चित्त का छठा भाग देश तथा दसवां भाग देशदेश कहलाता 2579. आशातना पाराञ्चित में छह मास का छठा भाग एक मास तथा एक वर्ष का दो मास होता है तथा प्रतिसेवना पाराञ्चित में एक वर्ष का दो मास तथा बारह वर्ष का चौबीस मास छठा भाग होता है। (यह देश प्रायश्चित्त वहन का काल है।) 2580. देशदेश प्रायश्चित्त वहन में आशातना पाराञ्चित में छह महीनों का दसवां भाग अठारह दिन और वर्ष का दसवां भाग छत्तीस दिन होते हैं। प्रतिसेवना पाराञ्चित में संव्वत्सर का दसवां भाग छत्तीस दिन तथा प्रतिसेवना पाराञ्चित के बारह वर्षों का दसवां भाग एक वर्ष बहत्तर दिन होते हैं। (यह दूसरा देशदेश प्रायश्चित्त वहन का कालमान है।) 2581. आशातना पाराञ्चित का जघन्य काल छह मास है, उसका छठा भाग एक मास है। उत्कृष्ट एक वर्ष के काल का छठा भाग दो मास जानना चाहिए। 2582. प्रतिसेवना पाराञ्चित का जघन्य काल एक वर्ष, जिसका छठा भाग दो मास तथा उत्कृष्ट बारह वर्षों का छठा भाग चौबीस मास होते हैं। 2583. छह महीनों का दसवां भाग अठारह दिन तथा वर्ष का दसवां भाग छत्तीस दिन होते हैं। 2584. बारह वर्षों का दसवां भाग एक वर्ष बहत्तर दिन-रात होते हैं। यह देशदेश प्रायश्चित्त का काल है। 2585. तुष्ट होकर संघ देश (प्रायश्चित्त का छठा भाग) अथवा देशदेश (दसवां भाग) भी प्रायश्चित्त से मुक्त कर सकता है अथवा उतना ही वहन करवा सकता है अथवा सम्पूर्ण प्रायश्चित्त से उसे मुक्त भी कर सकता है। 2586. अथवा अगीतार्थ और अपरिणामक के लिए व्यवहार इस प्रकार है-नवविध व्यवहार का विस्तार करके उसे कहे कि वह लघुस्वक प्रायश्चित्त स्वीकार करे। . 2587. हाथ घुमाकर नवविध व्यवहार दिखाकर उसे कहा जाता है कि इस लघुस्वक व्यवहार को ग्रहण करो। 102. अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-ये दोनों प्रायश्चित्त विच्छिन्न हो गए हैं। जब तक चौदहपूर्वी रहते हैं, तब तक ये प्रायश्चित्त रहते हैं। शेष प्रायश्चित्त जब तक तीर्थ रहता है, तब तक उनका अस्तित्व रहता है। 2588. तप पाराञ्चित और तप अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त भद्रबाहु (प्रथम) के बाद विच्छिन्न हो गए। शेष प्रायश्चित्त तीर्थ की स्थिति तक विद्यमान रहते हैं।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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